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* जैन-तत्त्व प्रकाश *
(३) अलसिया--जो बड़ी सेना* के नीचे उत्पन्न हो । (४) महोरग-लम्बी अवगाहना वाला, जिसकी लम्बी से लम्बी एक हजार योजन की अवगाहना होती है।
(५) भुजपरिसर्प-भुजाओं के बल से चलने वाले जीव; जैसेचूहा, नेवला, घूस, काकोड़ा, विस्मरा, गिरोली, गोह, गुहेरा आदि । इनके भी दो भेद हैं-संज्ञी और असंज्ञी। इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो-दो भेद होते हैं।
इस प्रकार ५४४=२० भेद तिर्यन्च पंचेन्द्रिय के समझने चाहिए। सब मिल कर २२+६+२०४८ भेद तिर्यन्चों के हुए।
मनुष्यों के ३०३ भेद
मनुष्यों के मुख्य दो भेद हैं-गर्भज और सम्मूच्छिम । इनमें से गर्भज मनुष्य १०१ प्रकार के हैं-१५ कर्मभूमिज, ३० अकर्मभूयिज और ५६ अन्तर्दीपज । इन १०१ मनुष्यों के पर्याप्त तथा अपर्याप्त के भेद से २०२ भेद हो जाते हैं । इन १०१ प्रकार के गर्भज मनुष्यों के मल-मूत्र आदि. १४ प्रकार के मलों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य सम्मच्छिम मनुष्य कहलाते हैं। यह अपर्याप्त अवस्था में ही मर जाते हैं, अतएव उनके १०१ भेद ही होते हैं। इस प्रकार २०२ गर्भज और १.१ सम्मृच्छिम मिलकर ३०३ भेद मनुष्यों के होते हैं। इनका कुछ विस्तार इस प्रकार है:
गर्भज मनुष्यों के भेद में १५ भेद कर्मभूमिज के बताये जाते हैं, अतः कर्मभूमि का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है.। जहाँ असि (हथियार) मषि (लेखन-व्यापार आदि) और कसि (कृषि-खेतीबाड़ी) कर्म करके मनुष्य अपना
* चक्रवर्ती तथा वामदेव के पुण्य का क्षय होने पर उनके घोड़े की लीद में १२ योजन ४. कंग्स) लम्बे मातीर वाला अलसिया इत्पन्न होता है । उसके तफड़ाने से मची में ब्रड़ा- गड़हा हो जाता है। उस गड़हे में सारौ सेना, कुटुम्ब एवं ग्राम दफ कर नष्ट हो जाता है।