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________________ * धर्म प्राप्ति * [४०१ समय अनन्त जीव पाये जाते हैं, जब तक वह हरी रहे तब त अव्यात जीव पाये जाते हैं और पकने के बाद जितने बीज होते हैं उन ही जीव या संख्यात जीव रहते हैं। साधारण वनस्पतिकाय का वर्णन इस प्रकार है:-मूली, अदरख, बालू, पिण्डालु, कांदे, लहसुन, गाजर, शकरकन्द, सूरणकन्द, वज्रकन्द, मूसली, खुरसाणी, अमरवेल, थूहर, हल्दी आदि साधारण वतस्पति हैं। सुई की नौंक पर समा जाने वाले साधारण बनस्पति के छोटे से टुकड़े में, निगोदिया जीवों के रहने की असंख्यात श्रेणियाँ (बड़े शहर में होने वाली मकानों की कतार के समान) हैं। प्रत्येक श्रेणी में घरों की मंजिलों के समान असंख्यात प्रतर हैं। जिस प्रकार मंजिलों में कमरे होते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक प्रतर में असंख्यात गोले हैं । और जैसे कमरे में कोठरियाँ होती हैं, उसी प्रकार प्रत्येक गोले में असंख्यात शरीर हैं और जैसे कोठरियों में मनुष्य रहते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक जीव में अनन्तानन्त जीव हैं ।* इस प्रकार निगोदिया जीवों के पाँच अण्डर कहे जाते हैं। निगोदिया जीव मनुष्य के एक श्वासोच्छवास-काल जितने स्वल्प काल में १७॥ बार जन्म लेकर मरते हैं और एक मुहूर्त में (४८ मिनिट में) ६५५३६ वार जन्म-मरण के कष्ट भोगते हैं । पृथ्वी के भीतर रहा हुआ कन्द कभी पकता नहीं है। जैसे विशेष प्रसंग पर सगर्भा स्त्री का पेट चीर कर बच्चा निकाला जाता है, उसी प्रकार पृथ्वी को विदारण करके कन्द निकाला जाता है । इसलिए जैन और * सुई के अप्रभाग जितनी थोड़ी सी जगह में इतने जीवों का समावेश किस प्रकार हो सकता है ? इसका उत्तर यह है-मान लीजिए एक करोड़ औषधियाँ एकत्र करके उमका चूर्ण बनाया हो या अर्क निकाल कर तेल बनाया हो और उसे सुई के अग्रभाग पर रक्खा जाय, तो जैसे सुई के अग्रभाग पर कोड़ औषधियों समा जाती है. ती प्रकार अ नन्त जीवों का भी समावेश हो सकता है। राक्ष देखा जाता है कि मुद्रिका में लगाये हर बाजो के दाने गटने कच में कई मनुष्यों के फोटो प्रतिबिम्बित होते हैं। जब स्थूल वस्तुओं मे स्थूल वस्तुओं का प्रकार समावेश हो जाता है तो पास जीवों के समावेश होने में क्या श्राश्चर्य है ? पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु के जीव१२८२४ जन्म-मरण करते हैं। प्रत्येक वनम्पतिकाय के ३२०००, द्वौन्द्रिय ८०, त्रीन्द्रिय के ६०, चौइन्द्रिय के ४०, असंज्ञी पंचेन्द्रिय के २४ संशी तेन्द्रियजीव एक जन्म-मरण करते हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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