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________________ ३८८] ® जैन-तत्त्व प्रकाश हैं या करना चाहते हैं, उन्हें कपिल केवली की यह उक्ति सदा ध्यान में रखनी चाहिए: अधुवे असासयम्मि, संसारम्भि दुक्खयउराए । किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाहं दुग्गई न गच्छेज्जा ॥ ___ अर्थात्-संसार के समस्त पदार्थ अध्रुव हैं और अशाश्वत हैं। प्रथम तो कोई भी पदार्थ सदा एक-सा नहीं रहता, दूसरे कब किस वस्तु का कैसा परिणमन हो जायगा, यह निश्चित नहीं हैं । समस्त पदार्थ प्रतिक्षण परिवर्तित होते रहते हैं। संसार परिवर्तनशील ही होता तो भी कोई विशेष भय की वात नहीं थी, मगर वह दुःखप्रचुर भी है । विवेकदृष्टि से देखा जाय तो प्रतीत होगा कि संसार में सुख राई भर है तो दुःख पर्वत के बराबर है । फिर वह राई भर सुख भी सच्चा सुख नहीं है--सुख का विकार है-सुखाभास है । ऐसी स्थिति में मनुष्य को चाहिए कि वह विचार करे कि वह कौन-सा कार्य है, जिससे मैं दुर्गति से बच सकें। सच्चा सुख क्या है ? सच्चे सुख का भागी कौन हो सकता है ? इस संबंध में शास्त्र का कथन है: न वि सुही देवता देवलोए, न वि सुही पुढवीवई राया। न वि सुही सेठ सेनावइए, एगंतसुही मुणी वीयरागी । -श्रीउत्तराध्ययन अर्थात्-रत्नों के विमान में निवास करने वाले, देवांगना के हजारों रूपों के साथ, अपने हजारों रूप बनाकर विलास करने वाले, कई सागरोपम की आयु धारक देवता भी सुखी नहीं हैं। छह खण्ड पृथ्वी का राज भोगने वाले, हजारों स्त्रियों के साथ विषय-विलास करने वाले, देवताओं द्वारा सेवित चक्रवर्ती राजा भी सुखी नहीं है । असीम सम्पदा के स्वामी, विशाल कुटुम्ब वाले श्रीमान् राजमान्य सेठ-साहूकार भी सखी नहीं हैं। लाखों हाथियों, घोड़ों, रथों और पैदल सैनिकों के स्वामी-सेनापति-भी सखी नहीं हैं। अर्थात् इस संसार से उत्कृष्ट के उत्कृष्ट सम्पदा के अधिपति भी सच्चे सुख के पात्र नहीं हैं । अगर कोई सुखी है तो केवल बीताराग मुनि ही सुखी हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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