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________________ ॐ धर्म प्राप्ति उदय होता है, ऐसे श्रेणिक और श्रीकृष्ण महाराज आदि के समान मनुष्य धर्म का स्वरूप समझते हुए भी और धर्म का पाचारण करने की उत्कंठा रखते हुए भी व्रतसमाचरण रूप धर्म की सर्शना नहीं कर सकते । इस प्रकार के मनुष्यों का यह कर्तव्य है कि वे यदि स्वयं संयम का आचरण नहीं कर सकते तो जैसे उल्लिखित दोनों नरेश्वरों ने धर्म के लिए तन, मन, धन अर्पित किया, अपने स्त्री-पुत्र आदि प्रिय स्वजनों को दीक्षा दिलाई, दूसरे दीक्षाने वालों का महोत्सव किया, दीक्षा लेने वालों के कुटुम्बी जनों का अपने कुटुम्ब के समान ही पालन-पोषण किया, अनाथों की सहायता की, तिमी पंचेन्द्रिय प्राणी की हिंसा न करने की राज-घोषणा की, इसी प्रकार भी यथाशक्ति धर्म का उद्योत करें, धर्मात्माओं की यावृत्य करें और धर्मप्रभावना में अपनी शक्ति लगावें। जिन मनुष्यों को संयम रूप धर्माचरण करने की योग्यता प्राप्त है, उन्हें प्रमाद का त्याग करके, जहाँ तक संभव हो, मुनिधर्म का ही पाचरण करना चाहिए। अगर मुनिधर्म को अंगीकार करने की शक्ति न हो तो कम से कम श्रावकधर्म का पालन करना चाहिए। श्रावकधर्म का पालन करने से संसार संबंधी कोई काम भी नहीं रुकता है और धर्म की आराधना भी अंशतः हो जाती है । धर्म की आराधना के लिए (१) उत्थान (सावधान होना), (२) कर्म (प्रवृत्ति होना), (३) बल (स्वीकार करना), (४) वीर्य (पालन करना), और (५) पुरुषकार पराक्रम (स्वीकृत कार्य को पार लगानासम्पन करना) इन पाँच साधनों की प्रावध्यकता होती है। इन पाँचों का प्रयोग करने वाला पुरुष ही अपने ध्येय को पूरी तरह सफल कर सकता है । अपने इच्छित प्रयोजन को जो पूर्ण करना चाहते हैं, उनके लिए यह दसवाँ बोल-धर्मस्पर्शना ही सबसे अधिक उपयोगी है। जो इसे प्राप्त करते (१४) हंस के समान-जैसें,ईस मिले हुए दूध और पानी में से पानी 'त्याग कर दूध ही दूध ग्रहण कर लेता है. उसी प्रकार कोई-कोई वक्ता व्याख्यान के दोषों का त्याग कर गुण ही गुण ग्रहण करता है। (यह अन्तिम तीन प्रकार के श्रोता उत्तम है) इस प्रकार चौदह तरह के श्रोताओं का स्वरूप समझ कर, श्रोता के गुणों की जान कर अषमता त्यागनी चाहिए और यथाशक्ति उत्तमता या मध्यमता धारण करनी चाहिए।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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