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________________ (१२) निर्विचिकित्सी हो लाभ होगा, इस प्रकार का विश्वास । धर्मं प्राप्ति [ ३८१ व्यख्यान - श्रवण करने से मुझे अवश्य श्रोता को अवश्य होना चाहिए । (१३) जिज्ञासु हो । जैसे भूखे को भोजन की, प्यासे को पानी की, रोगी को औषध की, लोभी को लाभ की, पंथ भूले को पथप्रदर्शक की उत्कंठा रहती है, उसी प्रकार श्रोता को ज्ञान आदि गुणों के लिए उत्सुकता होनी चाहिए । 1 (१४) रस-ग्राही हो । जैसे पूर्वोक्त भूखा-प्यासा भोजन-पानी को पाकर प्रसन्न होता है और रुचिपूर्वक उसका उपयोग करता है, उसी प्रकार श्रोता को भी व्याख्यान - श्रवण का योग मिलने पर रुचि के साथ श्रवण करने का लाभ उठाना चाहिए। (१५) इहलौकिक सुखों की इच्छा न करे । श्रोता धन, पुत्र, यश, कीर्ति यदि इस लोक के सुखों की इच्छा न करे । अर्थात् ज्ञान के महान् लाभ को इस लोक संबंधी क्षणिक सुखों के लिए न गँवा दे | (१६) पारलौकिक सुखों की इच्छा न करे । यथा - आगामी भव में राजपद स्वर्ग-सुख आदि की अभिलाषा न करे । सिर्फ मोक्ष की एक मात्र कामना से शास्त्रश्रवण और धर्माचरण करे । (१७) सुखदाता हो । अपने हित का उपदेश देने वाले वक्ता को यथायोग्य वस्त्र, स्थान, धन, आहार आदि की सहायता देकर तथा उसकी उचित सेवाभक्ति करके उसके उत्साह की वृद्धि करे । (१८) प्रसन्नकारी हो । वक्ता के चित्त को हर तरह से प्रसन्न रक्खे | (१६) निर्णयकारी हो । सुनी हुई बातों में अगर संशय हो जाय तो पूछताछ करके उसका निर्णय करे संशय न हो तो भी उस विषय को अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए सरल भाव से प्रश्नोत्तर करे । (२०) प्रकाशक हो । व्याख्यान में सुना कथन अपने मित्रों एवं हितैषियों के सामने प्रकाशित करे और उनके चित्त को व्याख्यान सुनने के लिए प्रेरित करे ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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