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________________ *जैन-तत्त्व प्रकाश * हो उस वस्तु को त्याग करे। जो उपादेय ग्रहण करे और जो ज्ञेय (सिर्फ जानने योग्य ३८० ] यथा— जो हेय ( छोड़ने योग्य) ( ग्रहण करने योग्य) हो उसे अर्थात् उपेक्षा करने योग्य) हो उसे जान ले । (८) निश्रय - व्यवहारज्ञाता हो । निश्चय और व्यवहार का जोड़ा दोनों के समान हैं । चलते समय जिस पैर को आगे बढ़ाना होता है, वही पैर गे बढ़ाया जाता है । इसी प्रकार शास्त्र में दोनों नयों की अपेक्षा से कथन किया जाता है | उदाहरणार्थ - 'कालमासे कालं किच्चा' यह शास्त्र का पाठ है । इसका आशय है— श्रायुष्काल पूर्ण होने पर मृत्यु होती है । यह निश्चयrय का अभिप्राय है। ठाणांगसूत्र में बतलाया गया है कि सात कारणों से, असमय में आयु टूट जाती है । यह व्यवहार नय की प्ररूपणा है । निश्वयनय से कहा जाता है कि आत्मा ही देव है, ज्ञान ही गुरु है । अगर कोई पुरुष एकान्त निश्चय नय को पकड़ कर बैठ जाय और परमात्मा का भजन करना छोड़ दे और अपने आपको ही गुरु मानने लगे तो वह भवसागर में ही डूबेगा । अतएव निश्वय-व्यवहार दोनों को सम्यक् प्रकार से समझना चाहिए | कौन-सी प्ररूपणा नय की अपेक्षा से की जा रही है, इस प्रकार का विवेक न रखने से अनेक अनर्थ हुए हैं और हो रहे हैं । 1 (६) विनयवान् हो । विनीत श्रोता को ही यथोचित ज्ञान पचता है । श्रवण करते समय जो-जो संशय उत्पन्न हों उनका वे विनयपूर्वक निर्णय कर लें हैं । (१०) दृढ़ श्रद्धालु हो । अनेकान्तमय शास्त्रों के सूक्ष्म भावों को सुन कर चित्त को डाँवाडोल करता हुआ उनपर श्रद्धा रक्खे । जो वचन बुद्धि में न आवे, उसके लिए अपनी बुद्धि की कसर समझे । इस प्रकार की श्रद्धा रखने वाला ही आत्मकल्याण कर सकता है । (११) अवसर - कुशल हो | जिस समय जैसा उपदेश देना उचित हो, उस समय वैसा ही प्रश्न करो। द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव को देखे बिना प्रवृत्ति करने से विपरीत प्रभाव होता है ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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