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________________ ॐ धर्म प्राप्ति न विशेष इति वर्णानां सर्व ब्रह्ममयं जगत् । ब्राह्मणपूर्व श्रेष्ठं हि, कर्मणा वर्णतां गतम् ॥ -महाभारत, शांतिपर्व. अर्थात्-वर्ण की कोई विशेषता नहीं है। यह समस्त जगत् ब्रह्ममय है । पहले सब ब्राह्मण ही थे, फिर जिसने जैसा कर्म किया, वह उसी वर्ण वाला कहलाने लगा। 'अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं जघन्य वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तो ।' अर्थात्-उत्तम वर्ण वाला भी अधर्म का आचरण करने से नीचता को प्राप्त हो जाता है। 'धर्मचर्यया जघन्यो वर्णः पूर्वपूर्ववर्णमापद्यते जातिपरिवृतो।' अर्थात्-नीच वर्ण वाला भी धर्माचरण से उत्तम-उत्तम वर्ण प्राप्त करता जाता है । यह आयस्तंब धर्मसूत्र के प्रश्न २, पटल ४ में लिखा है। विश्वामित्रो वसिष्ठश्च, मतंगो नारदोऽपि च । तपोविशेषात्सम्प्राप्ता, उत्तमत्वं न जातितः॥ -शुक्रनीति, अध्याय ४, प्रकरण ४. अर्थात्-विश्वामित्र, वसिष्ठ और नारद ऋषि नीच जाति में उत्पन्न होकर भी तप की विशेषता के कारण उत्तमता को प्राप्त हुए। अतः जाति की कोई विशेषता नहीं है। जैनशास्त्र भी यही कहते हैं-'न दीसई जाइविसेस कोइ । जपो नास्ति तपो नास्ति, नास्ति चेन्द्रियनिग्रहः । दया दानं दमो नास्ति, इति चाण्डाललक्षणम् ॥ ___ अर्थात्-परमात्मा का जप, स्मरण, भजन, कीर्तन, ध्यान, स्तवन आदि न करना, रात-दिन अपने घर-धन्धे में ही रचा-पचा रहना, व्रत-नियम उपवास आदि न करना, सदा खा-पीकर शरीर को हृष्टपुष्ट बनाना और उसी में आनन्द मानना, भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार न करना, अग्नि की तरह
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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