SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 404
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६० ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश % 3E इस तरह विचार करने पर भी यही प्रतीत होता है कि मनुष्यभव मिलना बहुत कठिन है। २-आर्यक्षेत्र केवल मनुष्य जन्म की प्राप्ति से ही मुमुक्षुजनों के इष्ट अर्थ की सिद्धि नहीं हो जाती। मनुष्यजन्म के साथ दूसरा साधन आर्य क्षेत्र भी मिलना आवश्यक है। जो जीव मनुष्य होकर भी अनार्य क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं उनका मनुष्य होना व्यर्थ हो जाता है, बल्कि और अधिक अनर्थ का भी कारण बन जाता है। मनुष्य को प्रार्यक्षेत्र की प्राप्ति होना कितना दुर्लभ है, अब इस बात पर विचार करते हैं। सब ओर अनन्तानन्त अलोक के मध्य में ३४३ रज्जु घनाकार लोक है, जिसमें १९६ घनाकार रज्जु का अधोलोक है । इस अधो (नीचे) लोक में नारकी जीव तथा भवनपति और वाणव्यन्तर देव रहते हैं। इस क्षेत्र में धर्माराधन की सुविधा नहीं होती है। क्योंकि नारकी जीव अपने उपार्जन किये हुए पापों का फल भोगते हुए दुःख ही दुःख में अपना काल व्यतीत करते हैं और देव अपने शुभ कर्मों का फल भोगते हुए सुख में अपना काल अतिक्रमण करते हैं। लोक के मध्य में सिर्फ दस रज्जु जितनी जगह में तिची लोक है और उसमें असंख्यात समुद्र और द्वीप हैं। इन असंख्यात द्वीप-समुद्रों में सिर्फ अढ़ाई द्वीप में ही मनुष्यों की बस्ती है और फिर इन अढाई द्वीपों में भी दो महासमुद्रों, पर्वतों, नदियों वगैरह को छोड़कर केवल १५ कर्मभूमियाँ, ३० अकर्मभूमियाँ और ५६ अन्तद्वीप-इस तरह १०१ मनुष्यों के रहने के क्षेत्र हैं। इनमें से अकर्मभूमियों और अन्तीपों में जुगलिया मनुष्य ही रहते हैं । वे देवों सरीखे पूर्वोपार्जित शुभ कर्मों के पुरुष रूप फल मोगते हैं, धर्म की तनिक भी आराधना नहीं कर सकते। धर्माराधना के योग्य केवल कर्मभूमि के पन्द्रह ही क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों में से पाँच महाविदेह क्षेत्रों में तो सदैव धर्म की प्रवृत्ति रहती है, किन्तु पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों में दस-दस कोडाकोडी सागर के अवसर्पिणी और लत्यागी
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy