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________________ * धर्म प्राप्ति [ ३५६ से कदाचित् देवगति में उत्पन्न हो तो देवों की चार लाख जातियाँ हैं और aate करोड़ कुल हैं । वहाँ उत्कृष्ट आयु तेतीस सागरोपम की है । देवगति में भी जीव का एक ही भव होता है । इस प्रकार मनुष्यगति में आने से पहले जीव को दूसरी तीन गतियों में लम्बा परिभ्रमण करना पड़ता है। यह परिभ्रमण करते-करते अनन्त पुण्य का उदय होने पर महामूल्यवान् मनुष्य-पर्याय प्राप्त होती हैं । इस मनुष्यगति में चौदह लाख जातियाँ हैं, बारह लाख करोड़ कुल हैं, तीन पल्य की उत्कृष्ट है । मनुष्यगति में भी अगर जुगलिया मनुष्य के रूप में उपजे तो एक ही भव होता है । अगर कर्मभूमि में भद्रपरिणामी मनुष्य के रूप में जनमे तो लगातार सात भव मनुष्य के होते हैं । इस प्रकार अनेकानेक कठिनाइयाँ भोगने बाद मनुष्य गति प्राप्त होती है। सब मिलकर चौरासी लाख जीवयोनियाँ हैं और एक करोड़, साढ़े सत्तानवे लाख करोड़ कुल हैं। मनुष्य के अतिरिक्त सत्तर लाख जीवयोनियों से बचकर मनुष्य योनि को पा लेना कितना कठिन है ! श्री प्रज्ञापनासूत्र में जीवों की ६८ प्रकार की गिनती की है। उनमें सब से थोड़े गर्भज बतलाये गये हैं। गर्भज मनुष्य के उत्पन्न होने का स्थल भी बहुत परिमित है । तिछे लोक में अढ़ाई द्वीप के भीतर ही मनुष्य उत्पन्न होते हैं। सम्पूर्ण लोक का घनाकार परिमाण ३४३ राजू है । उसमें से ढ़ाई द्वीप ४५ लाख योजन में ही है। इस ४५ लाख योजन में भी दो लाख योजन विस्तार में समुद्र फैले हुए हैं इनके अतिरिक्त द्वीप की भूमि में भी नदियाँ हैं, पहाड़ हैं, वन आदि हैं, जहाँ मनुष्यों की आबादी नहीं होती । । में आने पर मिलता है और अशुभ कर्मों का फल नरकगति में जाने पर मिलता है । जैसेकोई मनुष्य, मौज-शौक छोड़कर, प्रमादरहित होकर कमाई करता है तो वह अपने घर जाकर सुख से आराम करता है। पर जो आदमी दुकान पर आराम करता है और प्रमाद में डूबा रहता है तथा धन का अपव्यय करता है, उसे घर जाकर भूखों मरना पड़ता है, गरीबी आदि के कष्ट सहन करने पडते हैं। दुकान को मध्य लोक समझना चाहिए और घर को नरक - स्वर्ग समझना चाहिए ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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