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________________ * धर्म प्राप्ति [३५५ यह आठ प्रकार का का परावर्तन करने पर एक युद्गलपरावर्तन हुआ । इस संसार में ऐसे-ऐसे अनन्त पुद्गलपरावर्तन इस जीव ने पूरे किये हैं। पुद्गलपरावर्त्त संबंधी गहरा विचार करने वाला सोचेगा-हे जीव ! जनम-जनम कर और मर-मर कर यह संसार अनन्त वार तू ने पूरा किया है ! इस प्रकार सुदीर्घ काल तक परिभ्रमण करते-करते, अनन्त पुण्य का उदय होने पर यह मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है । यह मनुष्य मन्म अनन्त परिप्रमण का अन्त करने के लिए एक उत्तम साधन है। बड़ी कठिनाई से इस की प्राप्ति होती है । * * द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सक्षमता और बादरता का विवेचन इस प्रकार है(1) काल सब से बादर द्रव्य है। जैसे कोई महापराक्रमी पुरुष अपना ममस्त बल लगाकर पत्तों की राशि में सुई धुसेड़े। उस सुई को उक्त पत्ता छेदकर दूसरे पत्ते तक पहुँचने में असंख्यात समय व्यतीत हो जाते हैं। (२) समय की अपेक्षा आकाश-क्षेत्र असंख्यातवाँ भाग सक्षम है। क्योकि एक अंगुल जितने आकाश में असंख्यात श्राकाशप्रदेश और उसकी असंख्यात श्रेणियाँ हैं । इन श्रेणियों में से एक अंगुल लम्बी और एक आकाश प्रदेश जितनी चौड़ी एक श्रेणी लें । उसमें से प्रत्येक समय, एक-एक आकाशप्रदेश निकाले तो असंख्यात कालचक्र व्यतीत हो जाने पर भी वे सब प्रदेश नहीं निकल सकते । इसलिए क्षेत्र, काल से भी असंख्यातगुना सूक्ष्म है। (३) द्रव्य, क्षेत्र से भी अधिक सक्ष्म है। क्योंकि उक्त एक ही आकाशप्रदेश में अनन्त परमाणु-द्रव्य समाये हुए हैं। प्रत्येक समय में एक-एक परमाणु निकाला जाय तो अनन्त काल चक्र के समय व्यतीत हो जाने पर भी आकाश के एक प्रदेश में स्थित परमाणु-द्रव्य समाप्त नहीं होंगे। अतः क्षेत्र से द्रव्य अनन्तगुना सूक्ष्म है। (४) भाव, द्रव्य से भी अधिक सूक्ष्म है। एक आकाशप्रदेश में स्थित अनन्त द्रव्यों में से एक द्रव्य को लें। उस एक द्रव्य के अनन्त पर्याय है। एक परमाणु में एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दो स्पर्श पाये जाते हैं। उसमें से एक वर्ण के अनन्त भेद होते हैं। यथा-एक गुण (एक डिग्री-अंश काला), दो गुण काला, यावत् अनन्तगुण काला वर्ण । इसी प्रकार रस, स्पर्श और गन्ध के भी भेद समझने चाहिए। ऐसे ही द्विप्रदेशी स्कन्ध के पुद्गलों में दो वर्ण, दो गन्ध, दो रस और चार पर्श, यो दस बोल पाये जाते हैं। इनके भी प्रत्येक के अनन्त-अनन्त भेद होते हैं । इस प्रकार सब द्रष्यों के अनन्त पर्याय हो जाते हैं। उनमें से यदि एक-एक पर्याय को, एक-एक समय में अगर अलग किया जाय (यह मात्र कल्पना है, ऐसा हो नहीं हो सकता) तो अनन्त कालचक्र बीत जाने पर एक पर्याय पूरा अलग हो। इसी तरह द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के अनन्त पर्याय हैं। अतएव भाव, द्रव्य से भी अनन्तगुना सूक्ष्म है। यह एक प्रदेश की व्याख्या बतलाई गई है। इसी प्रकार सर्वलोकव्यापी आकाश
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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