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* जैन-तत्त्व प्रकाश *
इसमें जितना काल व्यतीत हो वह एक पल्य कहलाता है), [१६] सागर [१७] अवसर्पिणीकाल (उतरता काल, दस कोड़ाकोड़ी सागर का), [१८] उत्सर्पिणीकाल (वृद्धि का समय, इसके भी छह आरों के दस कोड़ाकोड़ी सागर होते हैं), [१६] कालचक्र (अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी-दोनों मिल कर बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का), इस सब काल को जन्म-मरण के द्वारा फरसने पर बादर काल पुद्गलपरावर्तन होता है।
(६) सूक्ष्म कालपुद्गलपरवर्तन-समय से लेकर कालचक्र पर्यन्त अनुक्रम से जन्म-मरण करके स्पर्श करे। जैसे-पहले अवसर्पिणी काल के पहले समय में जन्म लेकर मरे, फिर दूसरी बार जब अवसर्पिणी काल लगे तो उसके दूसरे समय में जन्म लेकर मरे । इस प्रकार करते-करते जब तक श्रावलिका का काल पूरा हो तब तक ऐसा ही करे । उसके बाद जो अवसपिणी काल आवे तब उसकी पहली आवलिका में जन्म लेकर मरे, इस तरह समय के अनुसार स्तोक पूरा होने तक आवलिका में अनुक्रम से जन्म ले
और मरे । इसी प्रकार स्तोक, लव, आदि सब कालों में अनुक्रम से जन्म-मरण करके स्पर्श करे तब काल से सूक्ष्म पुद्गलपरावर्तन हुअा कहलाता है ।
(७) बादर भावपुद्गलपरावर्त्तन-पाँच वर्ण-काला, नीला, लाल, पीला और सफेद, दो गंध-सुगंध और दुर्गध; पाँच रस-खट्टा, मीठा, तीखा, कडक और कसैला; आठ स्पर्श-हल्का, भारी, शीत, उष्ण, रूखा, चिकना, कोमल और कठोर; इन बीस बोल वाले समस्त पुद्गलों का जन्ममरण करके स्पर्श करे तो भाव से बादर पुद्गलपरावर्तन हुआ कहलाता है।
(८) सूक्ष्म भावपुद्गलपरावर्तन-लोक में जितने भी काले वर्ण के पुद्गल हैं, उन सब का अनुक्रम से जन्म-मरण करके स्पर्श करे; जैसे पहले एक गुण काले पुद्गल का स्पर्श करे, फिर दो गुण काले पुद्गल का स्पर्श करे, इस प्रकार अनन्त गुण काले का स्पर्श करते-करते, यदि बीच में दूसरे वर्ण वाले या गंध वाले पुद्गल का स्पर्श कर ले तो पहले की सारी स्पर्शना गिनती में नहीं गिनी जाती-फिर शुरू से स्पर्शना करने पर वह गिनती में आती है। इस प्रकार अनुक्रम से वीसों बोलों के प्रारंभ से अन्त तक फरसने पर भाव से सूक्ष्म पुद्गलपरावन कहलाता है।