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________________ ३४. ] ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश ॐ (८) गगन-जैसे आकाश को सहारा देने के लिए कोई स्तम्भ नहीं है, वह निराधार होने पर भी टिका हुआ है, उसी प्रकार साधु बिना किसी का आश्रय लिये ही आनन्दपूर्वक संयम-जीवन व्यतीत करता है । (8) वायु-जैसे वायु एक जगह नहीं ठहरता, उसी प्रकार साधु भी एक जगह स्थायी रूप से नहीं ठहरता, वरन् देश-देशान्तर में विचरता रहता है। (१०) चन्द्र-मुनि चन्द्रमा की भाँति निर्मल और उज्ज्वल अन्त:करण वाला और शीतल स्वभाव वाला होता है। (११) आदित्य-जैसे सूर्य अन्धकार का विनाश करता है. उसी प्रकार श्रमण मिथ्यात्व रूपी भाव-अन्धकार को नष्ट करता है। (१२) समुद्र-समुद्र में अनेक नदियों का पानी आता है, फिर भी समुद्र कभी छलकता नहीं है, इसी प्रकार साधु सब के शुभ और अशुभ वचनों को सहन करता है, कोप नहीं करता है। (१३) भारएडपक्षी-भारण्डपक्षी के दो मुख और तीन पैर होते हैं। वह सदा आकाश में रहता है, सिर्फ आहार के लिए पृथ्वी पर आता है। पृथ्वी पर आकर वह अपने पड़ों को फैला कर बैठता है। वह एक मुख से इधर-उधर देखता रहता है कि किसी तरफ कोई खतरा तो नहीं है और दूसरे मुख से आहार करता है। जरा-सी आहट होते ही वह आकाश में उड़ जाता है । इसी प्रकार साधु सदा संयम में सावधान रहता है । सिर्फ आहार आदि विशेष प्रयोजन से गृहस्थ के घर जाता है। उस समय द्रव्यदृष्टि (चर्मचक्षु) आहार की ओर रखता है और अन्तर्दृष्टि से यह देखता रहता है कि मुझे किसी प्रकार का दोष तो नहीं लग रहा है ! दोष लगने की सम्भाबना हो या दोष की आशंका हो तो तत्काल वहाँ से चल देता है। (१४) मन्दरपर्वत-जैसे सुमेरु पवन से कम्पित नहीं होता, उसी प्रकार साधु परिषह और उपसर्ग आने पर संयम से चलायमान नहीं होता। (१५) तोय-जैसे शरद् ऋतु का पानी बिलकुल स्वच्छ रहता है, उसी प्रकार साधु का हृदय सदैव निर्मल रहता है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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