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________________ 8 साधु ® [३२६ कहलाते हैं। निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थ भी दो प्रकार के होते हैं-(१) उपशान्त कषाय और (२) क्षीणकषाय । जो मुनि अपने मूल और उत्तर गुणों में किंचित् भी दोष नहीं लगाते, जिन्होंने क्रोध आदि कषायों का क्षय कर दिया है किन्तु किंचित् लोभोदय शेष रह गया है, उसे भी राख से ढंकी हुई अग्नि के समान जो उपशान्त कर देते हैं, वे उपशान्तकषाय कहलाते हैं। जो मुनि समस्त कषायों को सर्वथा नष्ट कर देते हैं, जैसे पानी में डुबाया अंगार बिलकुल शांत हो जाता है, वे क्षीणकषाय कहलाते हैं। ऐसे मुनि मोहनीय कम से पूरी तरह निवृत्त हो जाते हैं, अतएव वे सर्वथा ग्रन्थ-रहित होते हैं और अपने वीतराग स्वभाव में रमण करते हैं । (५) जैसे उस धान्य के समस्त कंकर चुन-चुन कर निकाल फेंके जाएँ और धान्य को जल से धोकर स्वच्छ कर लिया जाय; उसी प्रकार जो मुनि पूर्ण विशुद्ध हो जाते हैं, वे स्नातकनिर्ग्रन्थ कहलाते हैं। स्नातक मुनि सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं। इसके भी दो भेद हैं:-(१) सयोगकेवली और (२) अयोगकेवली । जो केवली मन वचन काय के योगों से युक्त होते हैं और शुक्लध्यान के तीसरे भेद-सूक्ष्मक्रियातिपाति का अवलम्बन करते हैं वे सयोगकेवली कहलाते हैं। जो तीनों योगों से रहित होते हैं, शुक्लध्यान के चौथे पाये-समुच्छिन्नक्रिय-का अवलम्बन करते हैं वे अयोगकेवली कहलाते हैं । यह अयोगकेवली निर्ग्रन्थ अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पाँच लघु अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है, उतने समय तक अयोगकेवली अवस्था में अर्थात् चौहदवें गुणस्थान में रहकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। ___ पूर्वोक्त पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थों में से पाँचवें आरे में सिर्फ दूसरे और तीसरे प्रकार के निर्ग्रन्थ ही पाये जाते हैं, शेष तीन नहीं होते । शास्त्र के इस कथन को ध्यान में रखते हुए साधु की क्रिया में कदाचित् हीनता दिखलाई दे तो उत्तेजित नहीं होना चाहिए, राग-द्वेष की वृद्धि नहीं करना चाहिए। जैसे कोई हीरा कम मूल्य का होता है और कोई बहुत मूल्य का होता हैदोनों हीरा कहलाते हैं, उसी प्रकार कोई साधु उच्चश्रेणी का होता है और कोई
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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