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________________ ® साधु [३२७ रखने के लिए भगवतीस्त्र में कथित पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थों के गुणों की ओर दृष्टि रखनी चाहिए। पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ जिन्होंने रागद्वेष की गाँठ का अथवा ममता की ग्रंथि का (परिग्रह का) छेदन कर दिया हो, वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। सभी मुनियों में यह साधारण लक्षण समान रूप से होना चाहिए, किन्तु चारित्रमोहनीय कर्म के उदय में भेद होने से वे अनेक प्रकार के होते हैं । यहाँ उनके पाँच प्रकारों का उल्लेख किया जाता है: (१) पुलाक:-जैसे खेत में गोधूम, शालि आदि के पौधों को काट कर पूले बाँधकर ढेर लगाया जाता है । उसमें धान्य तो थोड़ा होता है मगर कचरा (धान्य के सिवाय का भाग) बहुत होता है। इसी प्रकार जिस साधु में गुण थोड़े और दुर्गुण अधिक हों वह पुलाक-निर्ग्रन्थ कहलाता है। पुलाकनिग्रन्थ भी दो प्रकार के हैं:-(१) लब्धिपुलाक और (२) प्रासेवनापुलाक । तेजोलेश्या की लब्धि के धारक जो साधु संघ की घात करने और धर्म का लोप करने जैसे महान् अपराधों को करने वाले होते हैं, जो कुपित होकर किसी को सपरिवार जला देते हैं, वे लब्धिपुलाक * कहलाते हैं और जिनके मूल गुणों अर्थात् पाँच महाव्रतों में तथा उत्तर गुणों में अर्थात् दस प्रकार के प्रत्याख्यान में दोष लगते हैं तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्र की विराधना करते हैं, वे आसेवनापुलाक कहलाते हैं । (२) बकुश:-जैसे पूर्वोक्त पूलों में से पास दूर कर दिया जाय और ऊंवियों (बालों का ढेर किया जाय तो उसमें यद्यपि पहले की अपेक्षा कचरा बहुत कम हो गया है, फिर भी धान्य की अपेक्षा कचरा अधिक है, इसी प्रकार जो मुनि गुण-अवगुण दोनों के धारक हों वे बकुश निर्ग्रन्थ कह * तेजो लेश्या के प्रभाव से उत्कृष्ट १६|| देशों को और चक्रवर्ती की सेना को भी बलाकर भस्म कर डालते हैं प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होते हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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