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® जैन-तत्त्व प्रकाश
(२६) थोड़ा बोले और जिस काल में जो क्रिया करने योग्य हो, करता रहे।
(२७) आर्त और रौद्रध्यान का त्याग करे, धर्मध्यान और शुक्लभ्याल ध्यावे ।
(२८) मन आदि के तीनों योगों को सदा शुभ कार्य में प्रवृत्त रक्खे । (२६) मारणान्तिक कष्ट आ पड़ने पर भी परिणामों को स्थिर रक्खे ।
(३०) कर्मबंध की कारणभूत क्रियाओं का तथा बाह्य एवं आभ्यन्तर संयोगों का प्रचार करे।
(३१) आयु का अन्त सनिकट आया जानकर सावधान रहे । गुरु के समक्ष समस्त पापों को प्रकाशित कर दे और किये हुए कुकर्मों की निन्दा करके उनके लिए हृदय से पश्चात्ताप करे ।
(३२) पापों के लिए पश्चाताप आदि (आलोचना-प्रतिक्रमण) करके जीवन पर्यन्त के लिए चारों प्रकार के आहार का और शरीर की ममता का त्याग करके संथारा करे । अन्त में समाधि के साथ देहोत्सर्ग करे ।
इन बत्तीसों शिक्षाओं को योगीजन अपने हृदय-कोष में संग्रह कर रक्खे और यथासमय, यथाशक्ति इनके अनुसार प्रवृत्ति करता रहे ।
उक्त सब गुणों के अतिरिक्त शास्त्रों में साधु के अन्य अनेक गुणों का उल्लेख किया गया है। उन सबको उद्धृत करने से ग्रन्थ का विस्तार बहुत बढ़ जायगा । इस भय से यहाँ इतना ही लिखा गया है । इन गुणों में सामान्य रूप से सभी अन्य गुणों का समावेश हो जाता है। जो मुनि शास्त्रोक्त सभी गुणों का पालन करते हैं, वे यथाख्यात चारित्र पालने वाले कहलाते हैं। यह चारित्र इस पंचम काल में नहीं पाला जा सकता। इस समय सामायिक और छेदोपस्थापनीय, यह दो ही चारित्र पाले जाते हैं । अतएव समस्त गुणों का असद्भाव देखकर यह खयाल नहीं करना चाहिए कि इस काल में कोई साधु है ही नहीं। पंचम काल के अन्त तक चारों ही वीर्थ कायम रहेंगे, ऐसा भगवान् का कथन है। श्रद्धा को शुद्ध और निधन