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________________ ३२० ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश सूरण आदि कन्द (३६) मूल-जड़ी (३७) फल (३८) बीज (३६) संचल नमक (४०) सैंधा (४१) सादा (४२) रोम देश का नमक (४३) समुद्री नमक (४४) पांशुक्षार (४५) काला नमक यह सब सचित्त होने पर भी ग्रहण करना अनाचीर्ण है। (४६) धूपन-शरीर को या वस्त्र को धूप देना । (४७) वमन-उँगलियाँ मुँह में डाल कर अथवा औषध लेकर बिना कारण वमन करना। (४८) वस्तीकर्म-गुदा द्वारा उदर में वस्तु डाल कर दस्त लेना अथवा गुह्यस्थान की शोभा करना । (४६) विरेचन-बिना कारण जुलाब लेना। (५०) अंजन-आँखों की शोभा बढ़ाने के लिए काजल या सुरमा लगाना । (५१) दन्तवर्ण–दाँतों को सुन्दर बनाने के प्रयोजन से रँगना । (५२) गात्राभ्यंग-व्यायाम-कसरत करना। उक्त ५२ अनाचीर्णो को भलीभाँति समझने से विदित होता है कि साधु का जीवन सर्वथा सीधा-सादा होना चाहिए। हिंसा, प्रारंभ-समारंभ से बचना, शारीरिक आसक्ति के कारण शरीर की सजावट करने की जो अभिरुचि होती है उससे बचना और कृत्रिमता से दूर रहना, यह इन अनाचीर्णों का प्रयोजन है। मुनि का जीवन सर्वथा प्राकृतिक होना चाहिए। अतएव इन ५२ अनाचीर्णों का त्याग करके जो शुद्ध संयम का पालन करते हैं, वही सच्चे साधु हैं। श्रीदशवैकालिकसूत्र के तीसरे अध्ययन में इन अनाचीर्णों , का वर्णन है। २० असमाधि दोष समाधि को भंग करने वाले या असमाधि को उत्पन्न करने वाले बीस * दाढ़ी, मूछ और मस्तक-इन तीन स्थानों के अतिरिक्त अन्य स्थान के बालों का लोच नहीं करना चाहिए।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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