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® साधु
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सूत्र-विरए सव्वपावकम्मेहिं, पेज-दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुन्नपरपरिवाय-अरति-रति-मायामोस-मिच्छादसणसल्ल-विरए, समिए, सहिए, सया जए, णो कुज्झे, णो माणी, माहणे ति वच्चे ।
अर्थ-जो समस्त पापों से विरत हो चुका है, किसी से राग-द्वेष नहीं करता, कलह नहीं करता, किसी को झूठा दोष नहीं लगाता, किसी की चुगली नहीं करता, निन्दा नहीं करता, संयम में अप्रीति तथा असंयम में प्रीति नहीं करता, कपट नहीं करता, झूठ नहीं बोलता और मिथ्यादर्शन शल्य से अलग रहता है, जो पाँच समितियों से युक्त है, ज्ञानादि गुणों से युक्त है, सदा जितेन्द्रिय है, किसी पर क्रोध नहीं करता और मान नहीं करता वह माहन कहलाता है ।
सूत्र-एत्थ वि समणे अणिस्सिए अणियाणे आदाणं च मुसावायं च बहिद्धं च कोहं च माणं च मायं च लोहं च पिज्जं च दोसं च, इच्चेव जो
आदाणं अप्पणो पद्दोसहेऊ तो तो आदाणातो पुव्वं पडिविरते पाणाइवाया सिया दंते दविए वोसट्टकाए समणेति वच्चे ॥
अर्थ-जो साधु पूर्वोक्त गुणों से युक्त है उसे श्रमण भी कहना चाहिए। साथ ही श्रमण कहलाने के लिए गुण भी होने चाहिए-शरीर में आसक्त न हो, किसी भी सांसारिक फल की कामना न करे, हिंसा, मृषावाद मैथुन
और परिग्रह न करे, क्रोध, मान, माया और लोभ तथा राग-द्वेष न करे, इसी प्रकार जिन-जिन बातों से इस लोक और परलोक में हानि दीखती है तथा जो आत्मा के द्वेष के कारण हैं, उन सब कर्मबंधन के कारणों से जो पहले ही निवृत्त है तथा जो इन्द्रियजयी, मुक्ति जाने योग्य और शरीर की आसक्ति से रहित है, उसे श्रमण कहना चाहिए ।
सूत्र- एत्थ वि भिक्खू अणुनए विणीए नामए दंते दविए वोसहकाए संविधुणीय विरूवरूवे परीसहोबसग्गे अझप्पजोगसुद्धादाणे उवहिए ठिअप्पा संखाए परदत्तभोई भिक्खुत्ति वच्चे ॥
अर्थात्-श्रमण के जो गुण कहे हैं वे सब भिक्षु में होने चाहिए । उनके अतिरिक्त जो अभिमानी नहीं है, विनीत है, मन है, इन्द्रियों को और