SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधु जैसे मंत्रवादी अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि करने के लिए उसी ओर सम्पूर्ण लक्ष्य देकर, आने वाले विविध उपसर्गों को पूर्ण दृढ़ता के साथ सहन करता है, इसी प्रकार जो पुरुष अपने आत्मा की विशुद्धि करने के लिए उसी ओर ध्यान एकाग्र करके अर्थात् एक मात्र मोक्ष के लिए ही आत्मा का साधन करता है, उसे साधु कहते हैं। श्री सूत्रकृतांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के १६३ अध्ययन में साधु के चार नामों का वर्णन किया गया है। सूत्र इस प्रकार है-अहाह भगवं एवं से दंते दविए, वोसट्टकाए ति बच्चे (१) माहणेत्ति वा (२) समणेत्ति वा (३) भिक्खु चि वा (४) निग्गंथे त्ति वा, तं नो बूहि महामुणी । ___ अर्थ-श्री तीर्थङ्कर भगवान्, इन्द्रियों का दमन करने वाले मुक्ति के योग्य और अशुभ योग के त्यागी साधु का चार नामों से वर्णन करते हैं(१) माहन (२) श्रमण (३) भिक्षु (४) निर्ग्रन्थ । सूत्र-पडिआह-भंते ! कहं नु दंते दविए वोसट्टकाए ति वच्चे माहणे त्ति वा, समणे ति वा, भिक्खू त्ति वा, निग्गंथे ति वा ? तं नो बूहि महामुणी ?' अर्थ---तब शिष्य ने प्रश्न किया-भगवन् ! दमितेन्द्रिय, मुक्ति के योग्य और कायोत्सर्ग करने वाले को श्रमण, माहन, भिक्षु और निर्ग्रन्थ क्यों कहते हैं ? हे महामुनि ! कृपा कर हमें बतलाइए।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy