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________________ २६२] ® जैन-तत्त्व प्रकाश करना चाहिए कि:-(१) घृणोत्पादक और अशुचि के भण्डार इस शरीर में तेरे जैसे विवेकशील और पवित्र आत्मा का भोहित होना योग्य नहीं है। (२) अरे मूढ़ ! जिस स्थान में नौ महीने रह कर महान् कष्ट सहन किया, घोर मुसीबत उठा कर छुटकारा पाया, फिर वहीं जाने की इच्छा करते हुए तुझे लजा नहीं आती ! (३) जैसा तेरी माता और भगिनी का आकार है, वैसा ही सब स्त्रियों का है। अतएव मूढ़ता को त्याग कर सब स्त्रियों को माता के समान ही मानना चाहिए । (४) अनादि काल से जन्ममरण करते हुए संसार के सब प्राणियों के साथ सब प्रकार का सम्बन्ध स्थापित कर चुका है। जरा उस पर भी विचार कर । (५) विष्ठा को देख थू-थू करता है, रक्त का दाग लग जाय तो उसे धोये बिना तुझे चैन नहीं पड़ता, जूठन को देख कर तेरा जी मचलाता है, फिर विष्ठा के भण्डार, रक्त के मथन और अधर-रस (थूक) के चाटने में घृणा क्यों नहीं आती ? उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है : जहा सुणी पूइकएणी निक्कसिजइ सव्वसो । एवं दुस्सीलपडिणीए, मुहरी निक्कसिजई ॥ -उ० अ०१-४ अर्थात्-भूख का मारा कुत्ता सूखी हड्डी के टुकड़े को चाटता है। हड्डी की तीखी नौंक से तालु में घाव पड़ जाता है और उसमें से खून आने लगता है। उस खून का आस्वादन करके वह और अधिक चाटना है । इससे उसकी तालु में घाव पड़ जाता है। उसमें कीड़े उत्पन्न हो जाते हैं और अन्त में उसका सारा भेजा सड़ जाता है। कान भी सड़ने लगते हैं । वह सड़े कान वाला कुत्ता कीड़ों से, मक्खियों से, दुर्गन्ध से लोगों की दुन्कार से घोर दुःखी होकर, सिर पटक-पटक कर मर जाता है। इसी प्रकार कामासक्त पुरुष, स्त्री के संयोग में मुग्ध होकर, अपने वीर्य के नाश से सुख मानता हुआ सुजाक, प्रमेह आदि अनेक भयानक बीमारियों से सड़ता है और रो-रो कर मृत्यु का ग्रास बन कर नरक में जाता है । नरक में यमदेवता उसे फौलाद की तपी हुई पुतली के साथ आलिंगन करने के लिए विवश करते हैं। उस समय उसकी वेदना का पार नहीं रहता।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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