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________________ **उपाध्याय [ २६१ शरीर है । फिर संसार के अन्य पदार्थ, जिन्हें जीव ने अपना मान खखा है। किन्तु विवेकवान् पुरुष को समझना चाहिए कि ममता दुःखों का मूल है । आखिर तो जितने भी आत्मा से भिन्न पर पदार्थ हैं, सब अलग होने वाले हैं। न किसी का संयोग सदा रहा है, न सदा रहेगा। जब उनका संयोग छूटने ही वाला है तो फिर उन पर ममता क्यों की जाय ? ममता करने से उन पदार्थों का वियोग होने पर आत्मा में अशान्ति होती है, शोक होता है और आतध्यान तथा रौद्रध्यान होता है। इन से आत्मा अत्यन्त कलुषित हो जाती है। त्यागधर्म को धारण करने से लोकोत्तर लाभ तो होता ही है, लेकिन लौकिक दृष्टि से भी त्याग का बहुत महत्त्व है। संमार की विभूति त्यागी के चरणों में लोटती है। फिर भी त्यागी जन उमकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते । जो कूप पानी को ग्रहण करता रहता है पर उसका त्याग नहीं करता उसके पानी में दुर्गन्ध उत्पन्न हो जाती है, वह वेकाग हो जाता है। इसी प्रकार जो सम्पत्ति आदि को ग्रहण करता है परन्तु उसका त्याग नहीं करता उसकी सम्पत्ति व्यर्थ हो जाती है ! त्याग से जगत् वशीभूत हो जाता है। अतएव सदैव त्याग धर्म की आराधना करनी चाहिए। (१०) ब्रह्मचर्यधर्म:-कामशत्रु को निर्दलन करने वाला ब्रह्मचर्य कहलाता है । प्रश्नव्याकरणसूत्र में ब्रह्मचर्य को भगवान् कहा है तथा गौतम ऋषि ने कहा है : आयुस्तेजो वलंबीर्य, प्रज्ञा श्रीश्च महाशयः । पुण्यं च मत्प्रियत्वं च, हन्यतेऽब्रह्मचर्यया ॥ अर्थात्-जो ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते हैं, उनकी आयु, उनका तेज, बल, वीर्य, बुद्धि, शोभा, लक्ष्मी, यश और पुण्य नष्ट हो जाता है । वह परमात्मा का प्रिय नहीं रहता । इस प्रकार सर्वत्र ब्रह्मचर्य की प्रशंसा की गई है और अब्रह्मचर्य से होने वाली हानियों को प्रकट किया गया है। ऐसा जान कर अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। कदाचित् मन चंचल हो जाय तो विचार
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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