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________________ ॐ उपाध्याय ॐ [२७६ और कामधेनु आदि द्रव्य वस्तुओं से भी अधिक सुख देने वाली है । मन को पवित्र करने वाली है । वह माता के समान शरीर की रक्षा करने वाली है। ऐसा जानकर प्रखंड क्षमाभाव का आचरण करके उपाध्यायजी परमसुख प्राप्त करते हैं। (२) निर्लोभताः-लोभ रूपी शत्रु का निग्रह करना निर्लोभता या सन्तोष धर्म है । 'सन्तोषः परमं सुखम्' अर्थात् सन्तोष से ही उत्कृष्ट धर्म की प्राप्ति होती है । सन्तोषशील जन विचार करते हैं कि जितनी जितनी वस्तु प्राप्त होने का अनुबंध होता है, उतनी उतनी ही प्राप्त होती है । उसमें कोई भी न्यूनाधिकता नहीं कर सकता । तृष्णा रखने से कोई लाभ तो होता नहीं, उलटा कर्म का बंध होता है । कहावत है-'कुटुम्ब जितनी विटम्ब और सम्पत्ति जितनी विपत्ति' यह सच ही है। क्योंकि परिग्रह जितना ज्यादा होगा, उसे सँभालने की उतनी ही अधिक चिन्ता करनी पड़ेगी । इस पर विशेषता तो यह है कि काम में सिर्फ चार हाथ जमीन, आधा सेर अनाज और २५ हाथ कपड़ा ही आता है। बाकी की चिन्ता और सार-संभाल मुफ्त में ही करनी पड़ती है। फिर कितनी ही ऋद्धि क्यों न प्राप्त हो जाय, तृष्णा कभी शान्त नहीं होती। चक्रवर्ती की सर्वोत्कृष्ट ऋद्धि पा करके भी संभूम चक्रवर्ती को सन्तोष नहीं हुआ । उसने सातवें खण्ड पर भी विजय प्राप्त करने की इच्छा की। परिणाम क्या निकला ? उसे समुद्र में डूब कर मरना पड़ा और सातवें खण्ड के बदले सातवें नरक का साधन किया। ऐसी दशा में मिट्टी के झोंपड़े से और तुच्छ सम्पत्ति या संतति से इच्छा की तृप्ति कैसे हो सकती है ? तृष्णा आग के समान है। ज्यों-ज्यों ईंधन डाला जाय, आग त्यों-त्यों बढ़ती जाती है। इसी प्रकार ज्यों-ज्यों भोगसामग्री जुटाते जाओ त्यों-त्यों तृष्णा बढ़ती ही चली जाती है । अतएव सुखार्थी के लिए सन्तोष का अवलम्बन लेना ही उचित है । आश्चर्य तो उन पर होता है जो तृष्णा की आग को बुझाने के लिए प्राप्त ऋद्धि-कुटुम्ब आदि का त्याग करके साधु बनते हैं। लेकिन फिर भी जो
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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