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________________ २४० ] ॐ जन-तत्त्व प्रकाश इसके अतिरिक्त छह आरा, जुगलिया मनुष्य, श्री ऋषभदेव भगवान्, भरत चक्रवर्ती को छह खएड साधने की रीति, नव निधान, चौदह रत्न, ज्योतिषचक्र आदि का खब विस्तृत वर्णन है। इसके मूलश्लोक ४१४६ हैं। पहले इस उपांग के ३०५००० पद थे। हाथी बड़ा कैसे हो सकता है ? मुनि-एक दीपक को कटोरे से ढंक दिया जाय तो वह कटोरे जितनी जगह में ही प्रकाश करता है। उसी दीपक को महल में रख दिया जाय तो महल जितने क्षेत्र में प्रकाश फैलाता है । उस समय दीपक की जोत कुछ कम-बढ़ नहीं जाती। वह एक सरीखी ही बनी रहती है। इसी प्रकार जीव जितने छोटे-बड़े शरीर में प्रवेश करता है, उतने में ही समा जाता है। राजा-मुनिवर ! आपका कथन न्याययुक्त है, लेकिन मेरे बाप-दादाओ से जो धर्म मेरे परिवार में चला आया है, उसे मैं कैसे छोड़ दूं ? ___ मुनि-अगर नहीं छोड़ सकते तो तुम्हारी भी वही दशा होगी जो लोह-वणिक की हुई थी। राजा-लोह-वणिक कौन ? उसकी दशा क्या हुई थी ? मुनि-सुनिये । एक बार चार वणिक् धन कमाने के लिए परदेश चले । रास्ते में एक जगह लोहे की खान मिली । चारों ने उसमें से लोहे की गठड़ियां बांध ली, कुछ आगे चलें तो तांबे की खान मिली। उस खान को देख कर तीन वणिकों ने लोहा फेंक दिया और तांबे की गठड़ी बाँध ली । चौथा बोला-अपने राम ने तो जो बाँध लिया सो बाँध लिया। इस प्रकार वह लोहे की गठड़ी ही बाँधे रहा। कुछ और आगे जाने पर चांदी की और फिर सोने की खान मिली। उस समय तीनों ने तांबे की जगह चांदी की और फिर चाँदी छोड़कर सोने की गठड़ियाँ बाँध ली । अन्त में जब हीरा-माणिक की खान मिली तो सोने की गठड़ी त्याग कर हीरा-माणिक की गठड़ी बाँध ली। यह कमाई करके वे बहुत सुखी हुए। मगर उस लोहवणिक् ने अन्त तक लोहे की गठड़ी नहीं छोड़ी। वह लोहे का भार लाद कर वृथा ही दुखी हुआ और गरीब ही बना रहा । इसी प्रकार राजन्, अगर तुम कदाग्रह रख कर अपने बाप-दादा का धर्म नहीं छोड़ोगे तो दुःखी होओगे। मनि श्री केशी श्रमण का कथन सुन कर राजा प्रदेशी ने जैनधर्म अंगीकार किया। फिर उसने अपनी लक्ष्मी के चार विभाग किये और उनमें से एक भाग धर्मदान के लिए रख लिया। उसने बेले-बेले की तपस्या प्रारम्भ की। महाराज केशी श्रमण वहाँ से विहार कर चले गए। रानी सूर्यकान्ता ने अपने स्वामी को धर्म में दृढ़ समझ कर और संसार के भोगविलासों से विरक्त देखकर सोचा कि अब हमारे लिए यह निरुपयोगी है। यह सोचकर उस पापिनी ने अपने पति को तेरहवें बेले के पारणे के समय विष खिला दिया। राजा को विष
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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