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________________ २१४ ] * जैन-तत्त्व प्रकाश * पालन करना, दूसरे से पालन कराना, संयम में अस्थिर हुए को स्थिर करना, यह संयम-समाचारी-विनय है। (२) पाक्षिक आदि पर्व-तप स्वयं करना, दूसरे से कराना, आप स्वयं भिक्षा के लिए जाना तथा दूसरे मुनियों को भेजना, यह तप-समाचारी है । (३) तपस्वी, ज्ञानी, नवदीक्षित आदि का प्रतिलेखन श्राप करना या अन्य मुनियों से कराना गणसमाचारी है। (४) उचित अवसर आने पर आप अकेले बिहार करना और सुयोग देखकर दूसरे को अकेले विहार कराना सो एकाकी-विहार समाचारी है । (२) श्रुतविनयः-सूत्र आदि का अभ्यास करना श्रुतविनय है। श्रुतविनय के भी चार भेद हैं:-(१) स्वयं श्रुत का अभ्यास करना और दूसरे को कराना (२) अर्थ का यथातथ्य धारण करना और कराना (३) शिष्य जिस प्रकार के ज्ञान का पात्र हो, उसे उसी प्रकार का ज्ञान देना और (४) जो सूत्र-ग्रन्थ पढ़ाना प्रारम्भ किया हो उसे पूर्ण करके दूसरा पढ़ाना । (३) विक्षेपविनय-अन्तःकरण में धर्म की स्थापना करना विक्षेपविनय है । इसके भी चार भेद हैं :-(१) मिथ्यादृष्टि को सम्यग्दृष्टि बनाना (२) सम्यग्दृष्टि को चारित्री बनाना (३) सम्यक्त्व या चारित्र से भ्रष्ट हुए को स्थिर करना और (४) नवीन सम्यग्दृष्टि तथा नवीन चारित्री बना कर ऐसा व्यवहार करना जिससे कि धर्म की वृद्धि हो । (४) दोषपरिघात विनय-कषाय आदि दोषों का परिघात (नाश) करना दोषपरिघात विनय है । इसके भी चार प्रकार हैं-(१) क्रोधी को क्रोध से होने वाली हानियाँ और क्षमा से होने वाले लाभ बतला कर शान्त स्वभावी बनाना क्रोधपरिघात विनय है । (२) विषयों की आसक्ति से उन्मत्त बने हुए को विषयों के दुर्गुण और शील के गुण बतलाकर निर्विकारी बनाना विषयपरिघातविनय है। (३) जो रसलोलुप हो उसे लोलुपता की हानियाँ और तप के लाभ बतलाकर तपस्वी बनाना अन्नपरिघात विनय है। (४) दुर्गुणों से दुःख की और सद्गुणों से सुख की प्राप्ति बतला कर दोषी को निर्दोष बनाना आत्मदोष परिघात विनय है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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