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________________ * प्राचार्य * [२०१ सकता, इस प्रकार का अभिमान श्रुतमद कहलाता है । (८) मेरा इतना बड़ा परिवार है, मैं सम्प्रदाय का स्वामी हूँ (पूज्य हूँ)। सब मेरी आज्ञा का पालन करते हैं, इस तरह का अभिमान करना ऐश्वर्यमद कहलाता है। जो जिसका अभिमान करता है वह आगामी काल में उसे उसी की हीनता प्राप्त होती है अर्थात् जाति का अभिमान करने वाला नीच जाति में उत्पन्न होता है, कुल का अभिमानी नीच कुल में उत्पन्न होता है, बलाभिमानी निर्बल होता है, लाभाभिमानी दरिद्र होता है, तप का अभिमानी तपोहीन होता है, श्रुताभिमानी मूर्ख-निर्बुद्धि होता है और ऐश्वर्य का अभिमानी अनाथ एवं निराधार होता है । कितने खेद की बात है कि जो उत्तम वस्तु भविष्य में अधिक उत्तमता प्राप्त करने के लिए है, उसी के निमित्त से अज्ञानी लोग हीनता एवं नीचता प्राप्त कर लेते हैं ! ऐसा जानकर . आचार्य महाराज सदैव निरभिमान, अत्यन्त विनीत और नम्र होते हैं । माया-माया-कषाय का स्थान पेट है। माया प्रकृति को वक्र बनाती है। शास्त्र में स्थान-स्थान पर 'मायामिथ्यात्व' शब्द का प्रयोग किया गया है । अर्थात् प्रायः माया के साथ 'मिथ्यात्व' शब्द का भी प्रयोग किया देखा जाता है । जो पुरुष मायाचार करता है वह मर कर स्त्रीपर्याय पाता है और जो स्त्री मायाचार का सेवन करती है वह मर कर नपुंसक होती है । अगर नपुसक माया का सेवन करता है तो मर कर तिर्यश्च की गति पाता है। मायाचारी तिर्यश्च एकेन्द्रिय की योनि प्राप्त करता है। इस प्रकार माया से नीचतर पर्याय की प्राप्ति होती है। माया के साथ अगर तप और संयम का भी आचरण किया जाय तो वह भी यथोचित फलदायी नहीं होता। शास्त्र में माया को तीन शल्यों में से एक शल्य माना है और सच्चा व्रती वही कहलाता है जो शल्य से रहित हो। जैसे शरीर में चुभा हुआ काँटा निरन्तर व्यथा पहुँचाता है, उसी प्रकार यह भाव-शल्य माया आत्मा को घोर पीड़ा का कारण है । समवायांग सूत्र में महामोहनीय कर्म के बंध के कारणभूत ३० काम बतलाये हैं। वे इस प्रकार हैं:
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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