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________________ १८६ ] ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश, बारह प्रकार के बाह्य और आभ्यन्तर तप का स्वरूप है। यहाँ तपाचार पूर्ण हुआ। संतजनों को वन्दन करना, शास्त्र के अर्थ का चिन्तन-मनन करना, दूसरे को सद्बोध देना, अनुकम्पा करना और सत्य आचार का पालन करना; इन चौदह कारणों से साता वेदनीय कर्म का बंध होता है । इससे विपरीत पन्द्रह कारणो से असातावेदनीयकर्म का बंध होता हैजीवों की घात करना, छेदन करना, भेदन करना, परिताप देना, चुगली खाना, दुःख देना, त्रास देना, आक्रन्दन करना, द्रोह करना, धरोहर हजम कर जाना, असत्य भाषण करना, वैर-विरोध करना, कलह करना, क्रोध-मान करना, पर-निन्दा करना और स्वयं दुःख एवं शोक करना। (४) मोहनीयकर्म के कारण-अरिहन्त भगवान् की निन्दा करना, मरिहन्त-प्रणीत शास्त्र की निन्दा करना, जिनधर्म की निन्दा करना, सद्गुरु की निन्दा करना, इतन्त्रप्ररूपमा करना, कुपंथ चलाना। (५) आयु-कर्म चार प्रकार का है । चारों के भिन्न २ कारण हैं । वे इस प्रकार :देवायु के दस कारण-अल्पकषायी होना निर्मल सम्यक्त्व का पालन करना, श्रावक के शुद्ध व्रतों का पालन करना, गई वस्तु की और मृत सम्बन्धी आदि के लिए चिन्ता-शोक न करना, धर्मात्मा की भक्ति करना, दया और दान की वृद्धि करना, जिनधर्म का अनुरागी होना, बाल तप करना, अकाम निर्जरा करना, साधु के शुद्ध व्रतों का पालन करना । तिर्यञ्च-आयु के बीस कारण-शील भंग करना, ठगाई करना, मिथ्या कर्मों का आचरण करना, खोटा उपदेश देना, खोटे नाप-तोल रखना, दगाबाजी करना, झूठ बोलना झूठी साक्षी देना, अच्छी वस्तु में बुरी वस्तु मिलाकर बेचना, वस्तु का रूप बदल कर वेचना, पश का रूप पलट कर बेचना, खराब वस्तु पर मुलम्मा चढ़ाकर बेचना, क्लेश करना, निन्दा करना, चोरी करना, अयोग्य काम करना, कृष्ण, नील और कायोत लेश्या से युक्त होना और बात ध्यान करना। मनुष्यायु के दस कारण-देवगुरु की भक्ति करना, जीवों पर दया करना, शास्त्र का पठन-पाठन करना, न्याय से लक्ष्मी उपार्जन करना, हर्षयुक्त परिणाम से दान देना, पर की निन्दा न करना, किसी को पीड़ा न पहुँचाना, प्रारम्भ घटाना, ममता घटाना, सदा सरल भाव रखना। नरकायु के बीस कारण-अति लोभ करना, अतिमत्सरता करना, अति क्रोध करना, मिथ्या कर्म करना, पंचेन्द्रिय का वध करना, बड़ा असत्य बोजना, बड़ी चोरी करना, व्यभि चार सेवन करना, कामभोगों में आसक्त होना, मर्मस्थान का भेदन करना, पाँच इन्द्रियों के विषयों में तीव्र लुब्धता होना, संघ की घात करना, जिन वचन का उत्थापन करना, तीर्थकर के मार्ग की प्रतिष्ठा कम करना, मदिरापान करना, मांस-भक्षण करना, रात्रि भोजन करना,
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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