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________________ * श्राचार्य [ १८५ इच्छा या तीव्र लोभ होना । ( ३ ) मदिरा -मांस का सेवन करना (४) पंचेन्द्रिय जीवों की घात करना । (ख) तिर्यञ्चगति के कारण- -(१) दगाबाजी ( २ ) विश्वासघात ( ३ ) झूठ बोलना और (४) नाप-तोल खोटे रखना । (ग) मनुष्यगति के कारण --- (१) विनयवान् होना ( २ ) भद्रपरिणाम होना (३) दयालुता और (४) गुणानुराग । (घ) देवगति के कारण - - ( १ ) सरागसंयम (संयम का पालन तो करना किन्तु शरीर या शिष्य आदि पर राम वना रहना), (२) संयमासंयम ( श्रावक का एक देश संयम ), (३) श्रकामनिर्जरा - पराधीनता से प्राप्त हुए दुःखों को समभाव से सहन करना, (४) बालतप अर्थात् ज्ञानपूर्वक पंचादि तप करना । चार गतियों के १६ कारणों का त्याग करना और मोक्ष के कारणों को - ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप को – ग्रहण करना संसार - व्युत्सर्गतप कहलाता है । तीसरा (३) कर्मव्युत्सर्गतप है । [१] ज्ञानावरण [२] दर्शनावरणं [३] वेदनीय [ ४ ] मोहनीय [५] आयु [६] नाम [७] गोत्र और [८] अन्तराय, इन आठ कर्मों के बंध के कारणों का त्याग करना कर्मव्युत्सर्गतप है । यह * श्राचाररत्नाकर ग्रन्थ में कर्मबंध के कारण इस प्रकार बतलाये हैं: (१) ज्ञानावरणकर्म के बंध के कारण - (१) शास्त्रों को बेचकर आजीविका करना (२) कुदेव की प्रशंसा करना (३) सज्ज्ञान में संशय करना (४) गीत गान आदि की क्रियाएँ करना, कुशास्त्र की प्रशंसा करना (५) सिद्धान्त के मूलपाठ का उत्थापन करना (६) दूसरों के दोष प्रकाशित करना (७) मिथ्या शास्त्र का उपदेश करना । (२) दर्शनावरण कर्म के कारण - कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र और कुधर्म की प्रशंसा करना, धर्म के निमित्त हिसा करना, मिथ्याबुद्धि होना, अधिक चिन्ता करना, सम्यक्त्व में दोष लगाना, मिथ्याचार का सेवन करना और जान-बूझ कर अन्याय की रक्षा करना । (३) वेदनीयकर्म के कारण - दया करना, दान करना, क्षमा करना, सत्य भाषण करना, शील पालना, इन्द्रियदमन करना, संयम पालना, ज्ञान में मन लगाना, भक्ति करना,
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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