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________________ १७२] ® जैन-तत्व प्रकाश में, [३] जितना दोष दूसरे ने देखा हो उतना ही कह कर और बाकी को छिपा कर [४] निन्दा के डर से छोटे-छोटे दोष कह कर और बड़े दोषों को छिपा कर [५] छोटे दोषों को तुच्छ-नगण्य समझ कर न कह कर और सिर्फ बड़े दोषों को कह कर [६] ऐसी गड़बड़ करके कहे कि प्राचार्य कुछ सुने और कुछ न सुन पावें [७] प्रशंसा के लिए लोगों को सुना-सुना कर कहना [6] प्रायश्चित्त की विधि से अनजान के सामने कहना [१०] कम प्रायश्चित्त की इच्छा से दोषी के समक्ष अपने दोष कहना। विनीत शिष्य दस गुणों का धारक होता है, अतः वह शुद्ध आलोंचना करता है । उसके दस गुण यह हैं:-[१] पाप से भय रखने वाला [२] उत्तम जातिवान् [३] उत्तम कुलवान् [४] विनयवान् [५] ज्ञानवान् [६] दर्शनवान् [७] चारित्रवान् [८] क्षमावान्, वैराग्यवान् [६] जितेन्द्रिय और [१०] पाप का प्रायश्चित्त करने वाला। दस गुण के धारक मुनिराज प्रायश्चित्त देने के अधिकारी होते हैं:(१) शुद्धाचारी (२) शुद्धव्यवहारी (३) प्रायश्चित्तविधि के जानकार (४) शुद्ध श्रद्धावान् (५) लज्जा दूर करके पूछने वाले (६) शुद्धि करने में समर्थ (७) गंभीर-किसी के दोष सुनकर दूसरे से न कहने वाले (८) दोषी के मुख से दोष स्वीकार करा कर प्रायश्चित्त देने वाले (8) दृष्टि से ही वास्तविकता समझ लेने वाले विचक्षण और (१०) जिसे प्रायश्चित्त देना हो उसकी शक्ति को जानने वाले । प्रायश्चित्त के दस भेदः-(१) आलोचना अपने लिए अथवा आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान (रोगी), वृद्ध या बालक साधु के लिए आहार, औषध, वस्त्र, पात्र आदि लाने आदि किसी भी कार्य के लिए, उपाश्रय से बाहर जाने और वापिस गुरु के समीप लौटने के बीच जो जो व्यतिक्रम हुआ हो वह सब यथावत् गुरु या बड़े साधु के समक्ष निवेदन कर देने से अनजान में लगे हुए दोषों की शुद्धि हो जाती है। यह आलोचना प्रायश्चित्त कहलाता है। (२) प्रतिक्रमण-विहार में, आहार में, प्रतिलेखना करने में, बोलने में
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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