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________________ ® प्राचार्य میم] और कार्मणयोग; इन सातों काययोगों को अशुभ से निवृत्त करके शुभ में प्रवृत्त करना योगप्रतिसंलीनता तप है। [४] वाटिका [जहाँ बेलें आदिउत्पन्न हों वह स्थान] में, बगीचे [जिसके चारों ओर कोट बना हो ऐसाउद्यान] में, उद्यान [जिसमें एक ही जाति के वृक्ष हों] में, यक्ष आदि के देवस्थान में, पानी पिलाने की प्याऊ में, धर्मशाला में, लोहार आदि की हाट में, वणिक् की दुकान में, साहूकार की हवेली में, उपाश्रय-धर्मस्थानक में, श्रावक की पौषधशाला में,. धान्य के खाली कोठार में, जहाँ बहुत से आदमी एकत्र होते हों ऐसे सभास्थान [टाउन हाल] में, पर्वत की गुफा में, राजा की सभा में, छतरियों में, श्मशान में, और वृक्ष के नीचे; इन अठारह प्रकार के स्थानकों में, जहाँ स्त्री, पशु और नपुंसक न रहते हों वहाँ एक रात्रि आदि यथोचित काल तक रहना विविक्तशय्यासनप्रतिसंलीनता तप कहलाता है। ___ यहाँ तक छह प्रकार के बाह्य तप का स्वरूप बतलाया गया है। अब आभ्यन्तर तप के भेद कहते हैं: (७) प्रायश्चित्त-पापयुक्त पर्याय का छेदन करना प्रायश्चित्त तप कहलाता है। पाप दस प्रकार से लगते हैं-[१] कंदर्प (काम) के वश होने से [२] प्रमाद के वश [३] अज्ञानवश [४] क्षुधा के वश से [५] आपदा के कारण [६] शङ्का के कारण [७] उन्माद ( बीमारी या भूत लगने) से [८] भय से [६] द्वेष से [१०] परीक्षा करने की भावना से । इन दस कारणों से लगे हुए दोषों की आलोचना अविनीत (कुशिष्य) दस प्रकार से करता है-[१] क्रोध करके [२] प्रायश्चित्त का भेद पूछ कर का मिश्रपना रहना औदारिकमिश्र योग है । देवों और नारकों का शरीर वैक्रिययोग कहलाता है। वैक्रिय शरीर के पूरा निष्पन्न होने से पहले-पहले वैक्रियमिश्र योग होता है। चौदह पूर्व के पाठी मुनिराज को संशय उत्पन्न होने पर आहारक समुद्घात करके एक हाथ का पुतला शरीर में से निकालते हैं। उसे तीर्थकर भगवान् के पास भेजते हैं और उन्हें उत्तर मिल जाता है । वह आहारक योग कहलाता है । श्राहारकशरीर जब तक पूरा उत्पन्न न हो या पूरा समा न जाय तब तक आहारकमिश्रयोग होता है । एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर 'भारण करते समय साथ जाने वाला कामेण वर्गणा का समूह कार्मण्योग कहलाता है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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