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________________ * सिद्ध भगवान् [ ११६ 1 लोक है । दोनों में बारह बारह प्रतर हैं । इन प्रतरों में छह-छह सौ योजन ऊँचे और छब्बीस-छब्बीस सौ योजन की नींव वाले विमान हैं। तीसरे देवलोक में १२००००० और चौथे देवलोक में ८००००० विमान हैं । देवलोक के देवों की जघन्य दो सागरोपम और उत्कृष्ट सात सागरोपम की है। चौथे देवलोक के देवों की जघन्य दो सागरोपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट सात सागरोपम से कुछ अधिक श्रायु है । इन दोनों देवलोकों की सीमा से आधा रज्जु ऊपर १८ ॥ रज्जु घनाकार विस्तार में, मेरुपर्वत पर बराबर मध्य में घनवात के आधार पर पाँचवाँ ब्रह्म नामक देवलोक है । इसमें छह प्रतर हैं, जिनमें सात सौ योजन ऊँचे और २५०० योजन अंगनाई (नींव ) वाले ४००००० विमान हैं। की आयु जघन्य सात सागरोपम और उत्कृष्ट दस सागरोपम वहाँ के देवों है । पाँचवें देवलोक के तीसरे अरिष्ट नामक प्रतर के पास, दक्षिण दिशा में, सनाड़ी के भीतर, पृथ्वी - परिणाम रूप, कृष्ण वर्ण की, मुर्गे के पींजरे के कार की, परस्पर मिली हुई आठ कृष्णराजियाँ हैं । चार चारों दिशाओं में हैं और चार चारों विदिशाओं में हैं। इन आठों के आठ अन्तरों में आठ विमान हैं और आठों के मध्य में भी एक विमान है। इस प्रकार कुल नौ विमान हैं इनमें लौकान्तिक जाति के देवों का निवास है । इन विमानों और उनमें रहने वाले देवों के नाम इस प्रकार हैं: - (१) ईशान कोण में रहते हैं । चि नामक विमान है । उसमें 'सारस्वत' देव (२) पूर्व दिशा में चिमाली नामक विमान है, उसमें 'आदित्य' देव रहते हैं । इन दोनों प्रकार के देवों का ७०० देवों का परिवार है । (३) आग्नेय कोण में वैरोचन विमान है और उसमें 'वह्नि' देव रहते हैं । (४) दक्षिण दिशा में प्रभङ्कर विमान है, जिसमें 'वरुण' देव रहते हैं। इन दोनों का १४००० देवों का परिवार है ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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