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________________ ११८] ® जैन-तत्त्व प्रकाश क्षेत्र में यह कालचक्र अनादि से घूम रहा है और अनन्तकाल तक घूमता रहेगा। ऊर्ध्वलोक का वर्णन शनैश्चर के विमान की ध्वजा से १॥ रज्जु ऊपर १६॥ रज्जु घनाकार विस्तार में धनोदधि ( जमे हुए पानी) के आधार पर, लगडाकार, जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में पहला सौधर्म देवलोक (स्वर्ग) है और उत्तर दिशा में दूसरा देवलोक है। इन दोनों देवलोकों में तेरह-तरह प्रतर हैं ।* इन प्रतरों में पाँच-पाँच सौ योजन ऊँचे और सचाईस-सत्ताईस योजन की नींव वाले विमान हैं। पहले देवलोक में ३२००००० विमान हैं और दूसरे देवलोक में २८००००० विमान हैं। पहले देवलोक के इन्द्र का नाम शक्रन्द्र है। शक्रन्द्र की आठ अग्रमहिषियाँ ( इन्द्रानियाँ) हैं। दूसरे देवलोक के इन्द्र का नाम ईशानेन्द्र है। इनकी भी आठ अग्रमहिषियाँ ( इन्द्रानियाँ) हैं। प्रत्येक इन्द्रानी का सोलह-सोलह हजार देवियों का परिवार है । पहले देवलोक के देवों की आयु जघन्य एक पन्योपम की और उत्कृष्ट दो सागरोपम की है। उनकी परिगृहीता देवी की आयु जघन्य एक पल्योपम की और उत्कृष्ट सात पल्योपम की है। दूसरे देवलोक के देवों की आयु जघन्य एक पल्योपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट दो सामरोपम से कुछ अधिक है। इनकी परिगृहीता देवियों की आयु जघन्य एक पल्योपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट नौ पल्योपम की है। दूसरे देवलोक से आगे देवियों की उत्पत्ति नहीं होती। उत्त दोनों देव लोकों की सीमा के ऊपर, १६॥रज्जु घनाकार विस्तार में, घनवत (जमी हुई हवा) के आधार पर, दक्षिण दिशा में, तीसरा सनत्कुमार नामक देवलोक है और उत्तर दिशा में चौथा महेन्द्र नामक देव * जैसे मकान में मंजिल होते हैं, उसी प्रकार देवलोकों में प्रतर होते हैं । जैसे मंजिल में कमरे होते हैं, उसी प्रकार प्रतरों में विमान होते हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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