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________________ अरिहन्त 8 [१०३ - १८ लिपियाँ * और १४ विद्याएँ+ वगैरह सिखलाते हैं। फिर जिताचार के अनुसार स्वर्ग से इन्द्र आकर बहुत ठाटबाट के साथ, उन तीर्थङ्कर का राज्याभिषेक करके उन्हें राजा बनाता है। लग्नोत्सव करके पाणिग्रहण कराता है । ज्यों-ज्यों कुटुम्ब की वृद्धि होती जाती है त्यों-त्यों ग्राम-नगर आदि की वृद्धि होती जाती है । इस प्रकार भरतक्षेत्र में पारादी हो जाती है । ___सम्पूर्ण सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था हो चुकने के अनन्तर तीर्थङ्कर राज्य-ऋद्धि का परित्याग कर देते हैं। और संयम ग्रहण करके, तपश्चर्या करके चार घातिया कर्मों का सर्वथा क्षय करके, केवलज्ञानी होकर तीर्थ विधि (४२) काव्य शक्ति (४३) व्याकरण (४४) शालि खंडन (४५) मुखमण्डन (४६) कथाकथन (४७) पुष्पमालाग्रंथन (४८) श्रृङ्गार सजना (४६) सर्वभाषा ज्ञान (५०) अभिधानज्ञान (५१) श्राभरणविधि (५२) भृत्य उपचार (५३) गृहाचार (५४) संचयन (संचय करना) (५५) निराकरण (५६) धान्य राँधना (५७) केश गूथना (५८) वीणावाद (५६) वितंडावाद (६०) अंकविचार (६१) सत्यसाधन (६२) लोक व्यवहार (६३) अन्त्याक्षरी (६४) प्रश्न पहेली। * अठारह प्रकार की लिपियों-(१) हंसलिपि (२) भृतलिपि (३)पक्षलिपि (४) राक्षसलिपि (५) यवनीलिपि (६) तुर्कीलिपि (७) केरलीलिपि (८) द्रावडीलिपि (ह) सैंधवीलिपि (१०) मालवीलिपि (११) कन्नड़ीलिपि (१२) नागरीलिपि (१३) लाटीलिपि (१४) फारसीलिपि (१५) अनिमतलिपि (१६) चाणकीलिपि (१७) मूलदेवलिपि (१८) उड़ियालिपि । यह अठारह मूललिपियाँ हैं । देश विदेश से एक-एक लिपि के अनेकानेक अवान्तर भेद होते रहते हैं। जैसे माघवी, लटी, चौड़ी डाहली, तेलंगी, गुजराती, सोरठी, मरहठी, कोंकणी, खुरसाणी, सिंहली, हारी, कीही, हम्मीरी, परतीरी, मस्सी, महायोधी श्रादि अनेक लिपियाँ उक्त मूल लिपियों के ही विभिन्न रूपान्तर हैं। + चौदह लोकोत्तर विद्याएँ-(१) गणितानुयोग (२) करणानुयोग (३) चरणानुयोग (४) द्रव्यानुयोग (५) शिक्षाकल्प (६) व्याकरण (७) छन्दविद्या (८) अलंकार (8) ज्योतिष (१०) नियुक्ति (११) इतिहास (१२) शास्त्र (१३) मीमांसा (१४) न्याय । चौदह लौकिक विद्याए-(१) ब्रह्म (२) चातुरी (३) बल (४) वाहन (५) देशना (६) वाहु (७) जलतरण (८) रसायन () गायन (१०) वाद्य (११) व्याकरण (१२) वेद (१३) ज्योतिष (१४) वैदिक । उल्लिखित कलाएँ, विद्याएँ और लिपिया यों तो अनादि काल से चली आ रही हैं और अनन्त काल तक चलती रहेंगी; किन्तु काल के प्रभाव से भरत और ऐरावत क्षेत्र में कभी लुप्त हो जाती हैं और कभी प्रकाश में आती हैं। महाविदेह क्षेत्र में सदैव बनी रहती हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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