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________________ ॐ सिद्ध भगवान् [६३ समुद्र को घेरे हुए असंख्यात द्वीप हैं और असंख्यात समुद्र हैं। सबका विस्तार दुगुना-दुगुना होता गया है। इन सबके अन्त में आधा रज्जु चौड़ा स्वयंभूरमण समुद्र है। उससे १२ योजन दूर चारों ओर अलोक है। ऊपर ज्योतिषचक्र से ११११ योजन दूरी पर अलोक है । ज्योतिषचक्र जम्बूद्वीप के सुदर्शनमेरु के समीप की, समतल भूमि से ७६० योजन ऊपर तारामण्डल है। आधा कोस लम्बे-चौड़े और पाव कोस ऊँचे तारा के विमान हैं । तारादेव की जघन्य स्थिति पल्योपम का आठवाँ भाग एवं उत्कृष्ट पाव पल्योपम की है। तारादेवियों की स्थिति जघन्य पल्य के आठवें भाग और उत्कृष्ट पल्योपम के आठवें भाग से कुछ अधिक है। तारा के विमान को २००० देव उठाते हैं। तारामण्डल से १० योजन ऊपर, एक योजन के ६१ भाग में से ४८ भाग लम्बा-चौड़ा और २४ भाग ऊँचा, अङ्करत्नमय सूर्य देव का विमान है। सूर्यविमानवासी देवों की आयु जघन्य पाव पन्योपम की और उत्कृष्ट एक पल्योपम तथा एक हजार वर्ष की है। इनकी देवियों की आयु जघन्य पाव पल्योपम और उत्कृष्ट आधा पल्योपम एवं ५०० वर्ष की है। सूर्य के विमान को १६००० देव उठाते हैं। सूर्यदेव के विमान से ८० योजन* ऊपर एक योजन के ६१ भाग में से ५६ भाग लम्बा-चौड़ा+ और २८ भाग ऊँचा, स्फटिक रत्नमय चन्द्रमा का होते हैं, उतने सब द्वीप-समुद्र हैं। जगत् में प्रशस्त (अछी) वस्तुओं के जितने नाम हैं उन सब नामों के द्वीप और समुद्र हैं । जम्बूद्वीप नाम के द्वीप भी असंख्यात हैं। * चन्द्र, सर्य आदि ज्योतिष्क देवों के वर्णन में योजन तथा कोस शाश्वत समझना चाहिए। ४००० अशाश्वत कोस का एक शाश्वत योजन होता है। + सूर्य विमान से एक योजन नीचे केतु को विमान है और चन्द्र विमान से एक योजन नीचे राहु का विमान है, ऐसा दिगम्बर सम्प्रदाय के चर्चाशतकं ग्रन्थ में उल्लेख है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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