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________________ ८२ ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश ® माल्यवन्त गजदन्त के नीचे होकर, पूर्व दिशा की तरफ मुड़कर, पूर्व महाविदेह को दो भागों में विभक्त करती हुई पूर्वोक्त प्रकार से ५३२००० नदियों के परिवार के साथ पूर्व लवण समुद्र में जाकर मिल जाती है। ___ उक्त नीलवन्त पर्वत के भी दक्षिण में, उक्त प्रकार के गजदन्त जैसे वक्र दो गजदन्त पर्वत हैं-माल्यवन्त और गन्धमादन । माल्यवन्त पूर्व में पन्ना के समान हरित वर्ण वाला है और गन्धमादन सुवर्ण के समान पीत वर्ण वाला है। मेरुपर्वत से दक्षिण में, निषध पर्वत के पास उत्तर में विद्युत्प्रभ और सौमनस गजदन्त पर्वत के मध्य में, ११८४२०० योजन (२ कला ) चौड़ा, ५३००० योजन लम्बा, अर्धचन्द्राकार देवकुरु क्षेत्र है। इसमें सदैव पहले आरे जैसी रचना रहती है। देवकुरु क्षेत्र में ८॥ योजन ऊँचा रत्नमय जम्बूवृक्ष है। इस पर जम्बूद्वीप का अधिष्ठाता महाऋद्धि का धारक मणढी नामक देव रहता है। मेरुपर्वत के उत्तर में, न लवन्त पर्वत के पास दक्षिण में, दोनों गजदन्त पर्वतों के बीच में, देवकुरु क्षेत्र के समान ही 'उत्तरकुरु' क्षेत्र है। वहाँ जम्बूवृक्ष के समान ही शाल्मलि वृक्ष है ।+ + मेरु पर्वत से दक्षिण-उत्तर के एक लाख योजन का हिसाबःमेरुपर्वत १०००० योजन महाहिमवान् पर्वत ४२१०१६ योजन दक्षिण का भद्रशाल वन ५०० , रुक्मि पर्वत ४२१०२६, उत्तर का भद्रशाल वन ५००, हैमवत क्षेत्र २१०५१३, देवकुरु क्षेत्र ११८४२२९ , हैरण्यवत क्षेत्र २१०५.१३, उत्तर कुरुक्षेत्र ११८४२.२ , चुल्लहिमवान् पर्वत १०५२१३ , निषध पर्वत १६८४२ शिखरि पर्वत १०५२१३ ,, नीलवन्त पर्वत १६८४२ भरत क्षेत्र हरिवास क्षेत्र ८४२११२ , ऐरावत क्षेत्र रम्यकवास क्षेत्र ८४२११३ , कुल जोड़ १००००० ५२६१६, ५२६१६
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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