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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 85 of 583 ISBN # 81-7628-131-
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दो और यदि अंक को हटा दो, तो शून्य की कीमत शून्य हैं ऐसे ही ग्यारह अंग का ज्ञान और परमविशुद्ध चारित्र हो, परंतु सम्यक्त्व का एक अंक निकल चुका है, तो सब शून्य हैं ऐसे ही श्रद्धारहित सारा जीवन शून्य हैं इसलिए सर्वप्रथम जैन धर्म का दर्शन यदि प्रारम्भ होता है, तो दृष्टि से ही होता हैं जिस धर्म के प्रारम्भ में ही 'सम्यक्त्व' शब्द जुड़ा हो, फिर भले ही आपके व्रत भी नहीं हैं, तो भी तुम दरिद्र नहीं हों यदि तेरे पास शुद्ध सम्यक्त्व है तो तुम लंगड़े-लूले नहीं हो सकते, तुम भुवनत्रय में नहीं जा सकते, तुम नारी पर्याय मे नहीं जा सकते हो, नीच कुल में नहीं जा सकते हो और तुम नपुंसक नहीं हो सकतें
भो ज्ञानी! इस लोक में सम्यक्त्व के समान कोई श्रेष्ठ नहीं है और मिथ्यात्व के समान कोई हेय नहीं हैं अरे! सब लुटा देना, परन्तु सम्यक्त्व जब दिख जाये तो झोली फैला लेना, लेकिन मिथ्यात्व को सिर मत झुका देनां याद रखो, जब भावी भगवन्तों के प्रति ईर्ष्या-भाव का जन्म होता है, तब तीव्र अशुभ का उदय समझ लेनां मेरा भगवान जब तक नहीं मिलता, तब तक भगवान बनने वाली इन आत्माओं का विरोध मत करना, मिलकर ही रहनां कोई आपका विरोध करे तो आप समझना कि मेरे अशुभ कर्म का उदय है, मेरे निमित्त से यह भगवती-आत्मा विकल्प में जी रही हैं यदि आज मैं अहंत होता, तो जन्मजात विरोधी जीव भी बैर छोड़ देतें आज मेरे पास ऐसी पुण्य वर्गणाएँ नहीं हैं, जिस कारण मुझे देखकर इस जीव के भाव बिगड़ रहे हैं निर्मल सोच ऐसी होती है कि मैं पापी हूँ, इसलिये मुझे देखकर इस मनुष्य के परिणाम विकार को प्राप्त हो रहे हैं, यह मेरे अशुभ का उदय हैं हे नाथ! मेरे निमित्त से बेचारा कर्मबन्ध को प्राप्त हो रहा हैं अहो! मुमुक्षजीव शत्रुता में भी धर्म-ध्यान कर लेता है और मित्रता में भी धर्म-ध्यान कर लेता हैं परंतु ईर्ष्या नहीं देख पाती अरहंत को, ईर्ष्या नहीं देख पाती निग्रंथ को, ईर्ष्या समवसरण में भी आँखें बंद करा देती हैं इसलिये, प्रवचन सुनना कभी मत छोड़ना, क्योंकि वह सम्यक्त्व-उत्पत्ति का हेतु बनेगा
जैन-शासन 'युक्तानुशासन' है, इसमें युक्ति से अनुशासन की शिक्षा दी अर्थात् युक्तिपूर्वक अनुशासन की बात की गई हैं युक्ति यानि विवेकं वंदना भी करो तो युक्ति से करों आचार्य भगवन् अमृतचंद्र स्वामी ने श्रावकधर्म की सुंदर व्याख्या की हैं श्रद्धावान्, विवेकवान्, क्रियावान् जो है, उसका नाम है श्रावकं अर्थात् जो श्रद्धापूर्वक विवेकपूर्ण आचरण करता है और जिनवाणी को श्रद्धापूर्वक सनता है, उसका नाम है श्रावकं यह श्रावक जब सर्वप्रथम सम्यक्त्व गुण की ओर चलता है, तो वह एकदेश-जिन बन चुका है, क्योंकि उसने मिथ्यात्व को जीता हैं इसलिये तुम घबराना नहीं, आपके पास जिनेन्द्र का अंश आ रहा है और तुमने मिथ्यात्व को जीता है, इसलिये आप जैन हों
भो ज्ञानी! जिसने मिथ्यात्व और असंयम को जीत लिया है, परन्तु यदि वह धन व सम्मान का भूखा हो, तो उससे बड़ा संसार में कोई अल्पज्ञ नहीं सम्यक्त्व खोकर तुमने वैभव प्राप्त कर भी लिया, तो तुमने क्या किया? मिथ्यादृष्टि का वैभव केवल मल हैं अहो! जिसका सम्यक्त्व- धन लुट गया है, उसके पास बचा ही
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