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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 61 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 जानने की दृष्टि में नहीं रहतां ज्ञानी जीव न जानने की दृष्टि में रहता हैं जितना कम जानोगे, उतना ही स्वयं को जानोगे और जितना ज्यादा जानने का विचार करोगे, उतना ज्यादा आप स्वयं से अज्ञानी बनते चले जाओगें अहो! आपके पास ज्ञान का क्षयोपशम तो अल्प है, चाहे आप जिनवाणी को जान लो अथवा उपन्यास पढ़ लो जानने में बंध नहीं जानने-जानने की दृष्टि में बंध हैं इसी प्रकार से ज्ञाता भाव बंध नहीं कराता, ज्ञाता भाव में राग भाव बंध कराता हैं इसलिये बंध का हेतु ज्ञाता भाव नहीं हैं भगवन् कुन्दकुन्द स्वामी ने 'समयसार' में कहा है- ज्ञाता भाव बंध नहीं, बंध का कारण राग है, इसलिये विरागता की सम्पत्ति में लिप्त होकर राग मत करों भो ज्ञानी ! एक जीव कहता है: "जड़-कर्म घुमाते हैं मुझको, यह मिथ्या भ्रांति रही मेरी" और एक जीव कह रहा है कि 'रागद्वेष घुमा रहे हैं' मनीषियों! घुमा कौन रहा है ? और घूम कौन रहा है ? एक कार्य में एक ही कारण नहीं होता, एक कार्य में अनेक कारण होते हैं और उनमें से अपने अपने स्थान पर वे सभी कारण प्रबल ही होते हैं कुछ नजदीक हैं, कुछ दूर हैं, निमित्त है, उपादान हैं इस बात को आचार्य महाराज कह रहे हैं कि बंध किसने कराया ? 'समयसार जी में अस्सी नंबर की गाथा और 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' में बारह नंबर का श्लोक यह दो समझ में आ गए तो दोनों भ्रांतियाँ समाप्त हो जाएँगी भो ज्ञानी! देव-शास्त्र-गुरु की उपासना तो चल रही है, पर साथ में सिद्धांत के विपरीत श्रद्धा भी दौड़ रही हैं आचार्य अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि उपासना तो कषाय की मंदता में भी हो जाती है और मंद मिथ्यात्व में भी हो जाती हैं यह उपासना लोकदेशना के लिये भी हो सकती है तथा उपासना में कोई आशा भी हो सकती है, परंतु सिद्धांत में आशा और लोभ नहीं होना चाहियें अरिहंत भगवान को भावमोक्ष होता है, लेकिन द्रव्यमोक्ष तभी होगा जब आत्मा अष्ट कर्म से रहित हो जाएगीं अष्टकर्म से रहित आत्मा तभी होगी जब पहले आप आत्मा में कर्मबंध स्वीकार करोगें यह विषय भले ही आपको शुष्क दिखेगा, परंतु प्रामाणिकता के नाते बहुत गहरे में समझ कर चलना हैं यह जीव, बंध के अभाव में मोक्ष मान रहा है, तो छुड़ाओगे किसे ? 'वृहद द्रव्य संग्रह' में आचार्य नेमिचंद्र स्वामी ने कहा है: वण्ण रस पंच गंधा, दो फासा अट्ठ णिच्छया जीवें संति अत्तितो ववहारा मुत्ति बंधादों 7 अहो चैतन्य! वर्ण, रस, गंध आदि में आत्मा का धर्म नहीं हैं यह पौदगलिक धर्म हैं वर्ण पांच, गंध दो. स्पर्श आठ, रस पांच निश्चय से हमारी आत्मा में नहीं हैं इसलिये मेरी आत्मा अमूर्तिक हैं व्यवहारनय से ये आत्मा मूर्तिक हैं इसलिये जब तू परमार्थदृष्टि से देखेगा तो अभूतार्थ है, परंतु व्यवहारदृष्टि से देखेगा तो Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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