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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 55 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
नहीं, यह भूल तेरी ही हैं कमों को दोष मत देनां वह तो हर समय आप से भिन्न हैं पर आप पकड़े बैठे हो, इसलिए यह रागादिक परिणामों का जो परिणमन चल रहा, उसका कर्ता-भोक्ता तू ही हैं कमों को दोष देते रहोगे तो उससे तुम्हारा कार्य सिद्ध नहीं होगां अपने आप को ही आप दोष दें
भो चेतन! इंद्रियों को दोष मत देना, देह को दोष मत देनां इंद्रियों ने इंद्रियाँ नहीं दिलाई, देह ने देह नहीं दिलाईं तेरी आत्मा के विकारी भावों के ज्ञान का जो विपरीत परिणमन हुआ है उसके कारण तुम संसार में भटक रहे हों कौन भटका रहा है? आपके ज्ञान का विपरीत परिणमन कहें या रागादिक-भाव कहें या अज्ञान दशा कहें भो ज्ञानी! यह सब आत्मा की ही दशा हैं आप मिथ्यात्व के कारण कहें, ठीक हैं दूसरों के दोष देखना तुम्हारी आदत बन चुकी हैं अरे अज्ञानी! तू क्यों दूसरों को देख रहा है? यह जीव स्वयं का कर्त्ता है, स्वयं का ही भोक्ता है और स्वयं ही रागादिक भाव करेगा तो कर्त्ता–भोक्ता बनेगां रागादिक भाव को छोड़कर परमात्म-दशा को प्राप्त करेगा, तो वहाँ पर भी सिद्ध-स्वभाव का स्वयं ही भोक्ता हैं
मनीषियो! आज अपने घर में जाकर इतना ही विचार कर लेना, हे प्रभु! मैं छाया में बैठ कर धूप में न चला जाऊँ यह पुण्य की छाया मिली है इसे भोगों की धूप में मत जला डालनां ऐसा चिंतवन करोगे, तो चिंता नष्ट हो जायेगी और तुम्हारा सब कुछ छूट जायेगां
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