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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 543 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
"रत्नत्रय का पालन, श्रावक को एकदेश व मुनि को परिपूर्ण"
इति रत्नत्रयमेतत्प्रतिसमयं विकलमपि गृहस्थेनं परिपालनीयमनिशं निरत्ययां मुक्तिमभिलषितां209
अन्वयार्थ : इति एतत् =इस प्रकार पूर्वोक्तं रत्नत्रयम् = सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयं विकलम् अपि = एकदेश भी निरत्ययां मुक्तिम् = अविनाशी मुक्ति को अभिलषिता =चाहने वाले गृहस्थेन = गृहस्थ के द्वारा अनिशं = निरन्तरं प्रतिसमयं = प्रति-समय/हमेशां परिपालनीयम् = परिपालन करने योग्य हैं
बद्धोद्यमेन नित्यं लब्ध्वा समयं च बोधिलाभस्यं पदमवलम्ब्य मुनीनां कर्त्तव्यं सपदि परिपूर्ण[210
अन्वयार्थ : च = और (यह विकलरत्नत्रय) नित्यं = निरन्तरं बद्धोद्यमेन = उद्यम करने में तत्पर ऐसे मोक्षाभिलाषी गृहस्थ द्वारां बोधिलाभस्य = रत्नत्रय के लाभ के समयं लब्ध्वा = समय को प्राप्त करके (तथा) मुनीनां पदम् = मुनियों के चरणं अवलम्ब्य = अवलम्बन करकें सपदि =शीघ्र ही परिपूर्णम = परिपूर्ण कर्तव्यं = करने योग्य हैं
आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने यतिधर्म का कथन करते हुये कहा है कि जीव इस संसार के संकटों को, शारीरिक विषमता को अथवा किसी भी बाहरी विषमता को, विषमता मानकर संक्लेशता को स्वीकार कर लेता हैं वह कर्मों के कंकड़ को नहीं निकाल पाता हैं संसार में सुख की कल्पना करना तो वास्तव में अपनी बुद्धि का ओछापन हैं संसार में शांति की कल्पना संसार को बदनाम करना है, क्योंकि जिसका जो स्वभाव है उस स्वभाव को आप विभाव कैसे बनाएँगे? संसार का कार्य है अशांति, सांसारिक होने का आशय है अशांति अहो!
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