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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 536 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
की भावना से आपका क्षमागुण समाप्त हो जाता हैं अरे! अंतरंग में कलुषता आने ही नहीं देना? कलुषत नामा की वस्तु का उद्भव ही न होने देना, इसका नाम क्षमा हैं वह क्षमा किसी व्यक्ति से माँगी नहीं जायेगीं क्षमा माँगना यानी मैं यह प्रकट कर रहा हूँ कि आप मुझे क्षमा कर दों
भो ज्ञानी! वास्तव में जो क्षमाशील होता है, वह कभी भी न किसी को क्षमा करने जाता है? न किसी से क्षमा माँगने जाता है, उसका नाम उत्तमक्षमा हैं निश्चयनय से आत्मा क्षमास्वभावी है, क्रोधस्वभावी नहीं है, क्षमा माँगने और माँगे जाने की भी बात करनेवाली नहीं है, उसका नाम उत्तमक्षमा हैं आप बैठे थे, आपके ऊपर किसी ने चार कर दिया, फिर भी बैठे रहें यह उत्तम क्षमा है, जो कि शांति, मृदुत्व व ऋजुता से सहित तथा अहंकार की वृत्ति से रहित, मद से रहित, अभिमान स रहित होती हैं ध्यान रखना, यदि काषायिकभावों को रोकना चाहते हो तो मैं और मेरा का भाव छोड़ देनां अरे! पद के अहंकार ने ही तो स्वपद खो डाला हैं पद के मीठे जहर ने आत्मा की शांति को भंग कर दियां प्रतिदिन मंदिर आते हो, लेकिन उसी मंदिर में कोई धार्मिक अनुष्ठान हो, तो फिर नहीं आओगे; क्योंकि "हमें किसने बुलाया है?" इससे लगता है कि जीव का अहंकार कितने-कितने स्थानों तक पहुँचता है? भगवान् महावीर स्वामी का समवसरण लगा थां वहाँ पर भी ऐसे जीवन नहीं पहुँच पायें क्योंकि 'हमें बुलाया नहीं है, ऐसे भी जीव हैं अनन्तानुबंधी मान के साथ यदि कोई जीव जी रहा होगा तो वह समवसरण में भी नहीं पहुँचा उसके भाव ही नहीं आते हैं, क्योंकि उसे ये लगता है कि मैं जाऊँगा तो वे पूज्य और अधिक पूज्य हो जायेंगें ऐसी मानकषाय रहती हैं एक छोटा-सा बालक भी अपने पिता से सम्मान चाहता हैं उससे कह देना कि लो तुम यह लड्डू खा लो, ो वह मुँह बना लेगां पहले गोदी में बिठा लो, फिर उसको खिलाओ, तब खायेगां
भो ज्ञानी आत्माओ! यह धर्म हैं संयम स्वीकार करने के बाद यह भाव नहीं आना चाहिए कि मेरा सन्मान नही हो रहा हैं क्या आपने विचार किया कि यह संयम हमने समाज द्वारा सन्मान के लिए स्वीकार किया कि आत्मा के सन्मान के लिए? कभी-कभी बहुत आश्चर्य लगता हैं किसी ने दो प्रतिमायें ले लीं और उनको चटाइ नहीं डालीं कर्त्तव्य था कि उन्हें चटाई डालना चाहिए, लेकिन नहीं डालीं अब प्रतिमाधारी का कर्त्तव्य है कि चटाई के लिए हमने प्रतिमा नहीं ली थीं उचित स्थान पर बैठ जाएँ, क्योंकि हम धर्मात्मा हैं पर उन्होंने बाहर आकर हल्ला किया, बोले-कैसे लोग हैं, व्यवस्था नहीं कीं अहो! आपने अभी धर्म के मर्म में प्रवेश नहीं कियां जबकि सभा धर्म की थी, वहाँ तो आपको विचार करना था कि मैं धर्मात्मा हूँ एक पंडितजी साहब का बम्बई में एक श्रावक के यहाँ भोजन हुआ उस दिन पंडितजी का नमक का त्याग था और सेठजी के यहाँ ऐसी कोई चीज नहीं बनी, जिसमें नमक न पड़ा हों यहाँ तक कि दूध की खीर में भी नमक पड़ा थां उन्होंने कहा—आज मेरा तो नमक का त्याग हैं अरे! सारे-के-सारे “पंडितजी ! हमारे यहाँ अभी भोजन नहीं हुआं कल आपका निमन्त्रण पुनः हैं" इसीलिए ध्यान रखना, यदि कदाचित् आपके सम्मान में कुछ भूल भी हो
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