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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 524 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
बादल तैयार करें, लेकिन सत्यरूपी सूर्य का विनाश नहीं कर सकतां सत्य को नष्ट में जीना पड़े, पर वह अपनी चमक नहीं खो सकतां विजय सत्य की ही होती है, असत्य की कदापि नहीं पताका सत्य की ही फहरायी जायेगी, असत्य की नहीं सत्यधर्म तभी संभव है, जबकि हमारा वाणी पर संयम होगां जो व्यक्ति ज्यादा बोलता है तथा जब उसके अंदर बोलने का विषय नहीं रहता, तब वह यहाँ-वहाँ की चर्चा प्रारंभ कर देता है, जिसमें असत्य का पुट मिला होता हैं सत्य का स्थान मुख नहीं, हदय हैं सत्य हृदय से प्रस्फुटित होता हैं सत्य में सहजता होती हैं सत्य में दम्भता का कोई स्थान नहीं सत्य का झारोखा हर समय खुला रहता हैं सत्य पर चमकीले या न. दो के लेबिल लगाने की आवष्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि सत्य ऊपरी चमक का नाम नहीं है, वह तो इंसान की जान हैं यानी इंसान की इंसानियत का नाम है सत्यं सत्य के लिए समर्थन की आवश्यकता नहीं सत्य तो सत्य है, सत्य का क्या सत्य होगां मिश्री का स्वाद मीठा होता, पर कोई बतला सकता है कि मीठे का स्वाद कैसा होता? मीठा मिश्री का गुण हैं जैन सिद्धांत कहता है कि गुण का कोई गुण नहीं होता, उसी प्रकार सत्य का भी कोई अन्य समर्थक सत्य नहीं होता हैं सत्य का यह नग्न सत्य हैं जिसके जीवन में सत्य के संस्कार पड़ जाते हैं उसे फिर असत्य की आंधी हिला नहीं सकती, वह जीवन भर फलता है एवं यश के सर्वोच्च स्थान को स्पर्श करता हैं सत्यधर्मी को कठोर वचन रूपी अजीर्ण से बचना अनिवार्य है या उसे बचाने के लिए द्राक्षा से भी मधुर सुभाषित वचनों का चूर्ण लेना होगां मृदुभाषी सबका प्रिय होता है, जबकि कर्कश वाणी सबकी आँखों में किरकिराती हैं क्या कोयल सबको प्रिय नहीं होती? कौए की कर्कश वाणी किसे सुहाती है? यद्यपि कोयल ने किसी को क्या दिया और कौए ने किसी से क्या लिया, उसने क्या बिगाड़ा? सच है कि बोली-बाली में छिपी है जादू किरणं हे साधक! पर-पीड़ाकारी वचन प्रयत्नपूर्वक छोड़ देना चाहिए क्योंकि मनभेदी वचन बोलना भी हिंसा के कारण संसारवृद्धि का कारण होती हैं दिगम्बराचार्यों ने सत्य-धर्म की बहुतही सुंदर परिभाषा की है जो दूसरे के लिए संताप करते हों, ऐसे वचनों का परित्याग कर, स्वपर हितकारक वचन बोलना सत्यधर्म हैं जितने भी महापुरूष हुए वे सब सत्य, अहिंसा आदि के माध्यम से ही महान बनें यदि हमको महान बनना है, महानता की श्रेणी में आना है, आदर्शोपम बनना है, तो महापुरूषों के अनुसार सत्य-अहिंसा धर्म को धारण कर चर्या द्वारा जीवन में साकार करना होगां सत्य ही परम धर्म हैं अतएव परम धर्म का आश्रय लो, यही चैतन्य का परमसार हैं
'आत्मा का अनुपम सौन्दर्यः संयम'
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