SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 488
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 488 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 भो ज्ञानी! अतिचार का उद्भव ज्ञान के निर्मल परिणमन के कारण नहीं है, क्योंकि ध्यान पर दृष्टि नहीं जाने के कारण ध्यान नहीं है, ज्ञान तो है, इसलिए संयम में शिथिलाचार हैं ज्ञान हो या न हो, यदि ध्यान तुम्हारे पास है तो संयम में दोष नहीं लग सकतां पर ध्यान से चलना, क्योंकि ज्ञान सामान्य है, ध्यान विशेष हैं परंतु ज्ञान के अभाव में ध्यान नहीं होतां यह ध्यान रखना, कि जिस वस्तु का ज्ञान होगा, उसी का ध्यान किया जाएगा लेकिन ध्यान तो ध्यान है, क्योंकि ज्ञान में असावधानी हो सकती है, पर ध्यान में असावधानी नहीं होती हैं भो ज्ञानी! चित्त में निर्मलता का प्रवेश कर जाना,चित्त का चंचलता रहित हो जाना, उसका नाम ध्यान हैं सुई में धागे को पिरोते समय ध्यान नहीं होगा तो तुम कैसे सुई में धागा डालोगे? संसार भी ध्यान से होता है और मोक्ष भी ध्यान से होता हैं ध्यान दोनों के साथ रहता हैं यदि आर्त/रौद्र ध्यान हो गये तो संसार हो गया और धर्म/शुक्ल ध्यान हो गये तो मोक्ष हो गयां आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि आपने व्रत ले लिये तो उसमें अतिचार लगाकर अपना अहित क्यों कर रहे हो ? थोड़ी सावधानी और बरत लो तो निर्जरा ही निर्जरा हैं अहो! संयम का नीर तुम्हारे पास है, लेकिन अतिचार को मत कर लेना, नहीं तो किच-किच हो जाएगीं वर्ष में एक बार श्रावकों को श्रावकाचार और साधकों को मूलाचार का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए, जिससे प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान का आगम अनुसार अभ्यास बना रहे, मन की सफाई होती रहें यदि कहीं अवरुद्धता आ गई तो संयम में किच-किच (कीचड़) हो जाएगी, फिर अतिचारों से भी नहीं बचेंगे, अनाचार की ओर जाएगां अतः, स्वाध्याय आपको बता देगा कि देखो तुम सुधार कर लो, यह दोष हैं संयम की सावधानी/सुरक्षा हेतु आचार्य भगवन् कह रहे हैं कि आपने दिग्व्रत, देशव्रत, और अनर्थदंड विरति व्रत आदि को स्वीकार कियां आपने नियम लिया था कि दस-दस किलोमीटर तक ही चारों दिशाओं में गमन करूँगा किन्तु/तीन दिशाओं में नहीं गये हैं, इसलिए चालीस किलो मीटर एक ही दिशा में चले जाते हैं ऐसा नहीं करना, यह व्यतिक्रम है अर्थात् क्षेत्र वृद्धि, क्षेत्र की सीमा बढ़ा लेना हैं भो ज्ञानी! कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो नियम तो बहुत सारे ले लेते हैं, लेकिन भूल भी जाते हैं ध्यान रखना, यह भी अतिचार हैं सम्पूर्ण नियमों का उद्देश्य इच्छाओं का निरोध करना और राग का अभाव करना था, लेकिन वह कुछ नहीं हुआं कभी-कभी कहते हैं कि हमारा तो नियम है, अतः आप चले जाओ वहाँ अहो! परिप्रमाण क्षेत्र के बाहर अन्य पुरुष को भेज देना और वहाँ से वस्तु को मँगा लेना, फोन कर देना भी अतिचार हैं वह महापुरुष है, जो निमित्त के मिलने पर भी अपने उपादान को सम्हालकर चलता है, उसका नाम संयमी हैं नियम ले लिया बोलना कि नहीं है, पर कोई सामग्री चाहिए, हूँ-हूँ कर भूत से घूम रहे हो अथवा रूप Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy