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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 471 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002
"व्रतों में अतिचार न लगायें"
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अतिचाराः सम्यक्त्वे व्रतेषु शीलेषु पञ्च पञ्चेतिं सप्ततिरमी यथोदितशुद्धिप्रतिबन्धिनो हेया: 181
अन्वयार्थ :
सम्यक्त्वे = सम्यक्त्व में व्रतेषु शीलेषु व्रतों में और शीलों में पञ्च पञ्चेति = पाँच-पाँच के सत्तरं यथोदितशुद्धिप्रतिबन्धिनः = यथार्थ शुद्धि को रोकने वालें अतिचाराः हेयाः
यें सप्ततिः करने योग्य हैं
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शङ्का तथैव काङ्क्षा विचिकित्सा संस्तवोऽन्यदृष्टीनां
मनसा च तत्प्रशंसा सम्यग्दृष्टेरतिचाराः ं 182
क्रम से अमी
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= अतिचार त्याग
अन्वयार्थ :
शङ्का काङ्क्षा = सन्देह, वांछां विचिकित्सा = ग्लानिं तथैव वैसे हीं अन्यदृष्टीनाम् = मिथ्यादृष्टियों कीं संस्तवः च = स्तुति औरं मनसा = मन से तत्प्रशंसा = उन अन्य - दृष्टियों की प्रशंसा करनां सम्यग्दृष्टेः सम्यग्दृष्टि के अतिचाराः ये पाँच अतिचार हैं
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आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने ग्रंथराज पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में सल्लेखना का कथन करते हुआ लिखा कि प्रशस्त स्थान, निर्मल वातावरण व सिद्ध क्षेत्र, क्षपक की साधना के लिए उत्कृष्ट स्थान हैं जहाँ बाय वातावरण प्रवेश कर जाता है, वहाँ सल्लेखना समाप्त हो जाती हैं इसीलिए ऋषियों ने, मुनियों ने, आचार्य भगवन्तों ने, र्तीथकरों ने ऐसे प्रशस्त स्थान को चुना है जहाँ प्रकृति का मिलन प्रकृति में हों जहाँ विकृति का लेशमात्र न हों ऐसे प्रकृति के स्वरूप की प्राप्ति का जो शासन है उसका नाम जैन- शासन हैं आचार्य भगवन् कह रहे हैं कि जो विकृति है, वही अतिचार हैं विकृति ही अनाचार हैं विकृति में जाने का जो परिणाम है वह अतिक्रम हैं विकृति की प्राप्ति का परिणाम करने के बाद प्राप्त सामग्री को जोड़ना व्यतिक्रम हैं प्रत्येक व्रत के पाँच-पाँच अतिचार होते हैं और ऐसे अतिचार सत्तर होते हैं