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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 452 of 583 ISBN # 81-7628-131-
3 v -2010:002 "जन्म नहीं, मरण सुधारो" मरणान्तेऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि इति भावनापरिणतोऽनागतमपि पालयेदिदं शीलम्176
अन्वयार्थ :अहं = मैं मरणान्ते = मरणकाल में अवश्यम् = अवश्य ही विधिना = शास्त्रोक्त विधि से सल्लेखनां = समाधिमरणं करिष्यामि = करूँगां इति = इस प्रकारं भावनापरिणतः = भावनारूप परिणति करके अनागतमपि = मरणकाल आने के पहिले ही इदं = यहं शीलम् = सल्लेखना व्रतं पालयेत् = पालना चाहिएं
भव्य आत्माओ! अंतिम तीर्थेश वर्द्धमान स्वामी की पावन-पीयूष देशना हम सभी सुन रहे हैं आचार्य भगवन् अमृतचन्द्रस्वामी ने अलौकिक/दिव्य सूत्र प्रदान किया है कि निर्मल जीवन उसी का है, जिसने जीवन में मरण की कला को सीखा हैं मनीषियो! चतुर्गतियों के लिए तुमने अनंत बार जिया हैं कितने भेष बदले, कितने भाव बदल दिए, भव बदल दिए; परंतु भवातीत नहीं हुयें अहो ज्ञानियो! पुण्य के सद्भाव में व्यक्ति को पाप की काली रात्रियाँ नजर नहीं आती हैं ध्यान रखना, न पुण्य काम में आएगा, न भगवान काम में आएँगें तेरे भाव ही काम में आएँगें भव तेरा भावों से बनेगां जैन सिद्धांत में तीन प्रकार के मरण की चर्चा है-इग्नी मरण, प्रायोग्य मरण, भक्त प्रत्याख्यान मरणं हम सभी इतने अशुभ कर्म से बंधे हुए हैं कि आज का एक श्रेष्ठ मुनि या आचार्य भी इग्नी मरण नहीं कर सकता, प्रायोग्य मरण नहीं कर सकता, क्योंकि पंचम काल में एकमात्र भक्त-प्रत्याख्यान मरण होता हैं यह प्रकरण 'षट्खण्डागम' से प्रारंभ हो रहा हैं
भो ज्ञानी! मरण के तीन भेद किए हैं-'च्युत, चावित, त्यत्' जो मरण आयु को पूर्ण करके हो रहा है, वह 'च्युत मरण' हैं जो कदलीघात मरण होता है, उसका नाम 'चावित मरण' है और जो सल्लेखना-पूर्वक मरण होता है, वो 'त्यत् मरण' कहलाता हैं 'कदलीघात मरण' को ही जिनवाणी में अकालमरण कहा जाता हैं 'कदलीघात मरण' का अर्थ होता है-जैसे केले के वृक्ष में एक बार फल आ जाते हैं, पुनः उसमें फल नहीं आते, उस केले के वृक्ष को निकाल कर अलग कर दिया जाता है, परंतु उसकी आयु पूरी नहीं होती हैं
विसवेयण रत्तक्खय-भय-सत्थत्गहणसंकिलेसेहिं उस्सासाहाराणं णिरोहदो छिज्जदे आऊं गो.(क.का.)-57 Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
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