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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 449 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
क्यों नहीं सिखा पाएगा? गुरु आचरण नहीं कराते, गुरु आचार्य होते हैं, गुरु आपके आचरण पर सील लगाते हैं आचरण तो आपको ही करना होगां मुनि नहीं बना पाएँगे, मुनि बनकर तो आपको ही रहना होगां मनीषियो! ध्यान रखना, बिना गुरु सान्निध्य के सल्लेखन लेकर मत बैठ जाना, अन्यथा व्रत को भंग करोगे, या कुमरण करोगे, दो बातें निश्चित हैं क्योंकि जब तक आपकी पूरी आयु की अवस्था को नहीं जान लेते, तब तक कोई गुरु किसी को सल्लेखना नहीं देतें बारह वर्ष की समाधि आपने ले ली और आयुकर्म अधिक था, तो क्या करोगे? शरीर स्वस्थ्य है, यदि जबरदस्ती छोड़ दोगे, तो परिणाम कलुषित हो जाएँगें इसलिए समाधि ऐसे नहीं ली जाती हैं खेल/तमाशा मत कर लेनां आप अभ्यास करों जैसे आप जिनालय में एक घंटे बैठे हो, एक घंटे चारों प्रकार के आहार पानी का त्याग करके बैठ जाओ, पंच परमेष्ठी का स्मरण करो, यह सल्लेखना का अभ्यास चल रहा हैं
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निः प्रतिकारें धर्मायतनु -विमोचनामाहुः सल्लेखनामार्याः 122 र.क.श्रा.
सल्लेखना के दो भेद हैं, यम सल्लेखना और नियम सल्लेखनां जब योगी विहार करते हैं, तब नियम सल्लेखना लेकर चलते हैं जब जंगल से पार हो रहे हैं, नदी या अटवी से पार हो रहे हैं, उसमें सल्लेखना ले कर चलते हैं क्या मालूम, कोई खूखार जानवर ने आक्रमण कर दियां वह नियम सल्लेखना हैं जब तक मैं इस जंगल से पार नहीं हो जाऊँगा, तब तक मौनव्रत ले लेते हैं, और सिद्धभक्ति आदि बोल कर योग धारण कर लेते हैं, पंचपरमेष्ठी के स्मरण में लीन हो जाते हैं, यदि घोर उपसर्ग आ जाए, जिसमें समझ में आ जाए कि मैं अब जीने वाला नहीं हूँ मनीषियो! पूछ लेना उस कन्या से, जिसे अजगर ने निगल लियां पिता पहुँच गए, कुल्हाड़ी हाथ में उठा लीं सल्लेखना की दृष्टि देखना-हे तात! इसको मत मारो, हिंसा के भागीदार मत बनो, बेटी अब नहीं मिलेगी हे जनक! यह अजगर मेरा परम मित्र हैं आज मैं प्रभु का स्मरण करते-करते और प्रसन्नता के साथ यम के गाल में जा रही हूँ पिता के देखते-देखते अजगर ने निगल लियां अहो मुमुक्षुओ!
अहिमिक्को खलु सुद्धो, दसणणाणमइओ सदा रूवी णवि अस्थि मज्झ किंचिवी, अण्णं परमाणु मित्तंपिं 43 (स.सा.)
'अहिमिक्को खलु सुद्धो' का नाद गूंज रहा हैं अहो ! तू जिसे निगल रहा है, वह मैं नहीं हूँ और जो मैं हूँ, उसे तू कभी निगल नहीं सकता हैं चर्म का मुख मेरे धर्म का चर्वण नहीं कर सकतां हे मुमुक्षु आत्माओ!
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