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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 444 of 583 ISBN # 81-7628-131-3
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मुमुक्षु को श्वान में भी भगवान दिखते हैं मिथ्यादृष्टि वह होता है, जिसे भगवान में भी भगवान नजर नहीं आतां अरे! द्रव्य-दृष्टि से देखते हो, तो भेद नहीं दिखते हैं परंतु तुम्हारी दृष्टि तो पर्याय पर टिकी हैं पुत्र का संबंध द्रव्य दृष्टि का नहीं है, पर्याय का हैं द्रव्य से करोगे तो भो ज्ञानी! अज्ञानता हैं द्रव्य तो चैतन्य है, द्रव्य तो जीव है, पर्याय पुत्र की हैं पर्याय - दृष्टि को हटाने का उद्देश्य पर्याय का अभाव नहीं हैं पर्यायदृष्ट हटाने का उद्देश्य है कि तुम्हें जीव - विशेष में जो पुत्रपना झलक रहा है, कर्त्तव्य-भाव झलक रहा है, उसे हटा दो वह कष्ट का हेतु हैं पर्याय तो पर्याय है, पर्याय भगवान् नहीं हैं भगवान् बनने वाला द्रव्य जरूर है, यदि भव्य है तों अहो ज्ञानी! पंजा मार रहा है, रक्त निकाल रहा है, फिर भी देखने वाले को भगवान् दिख रहे हैं अहो पंचम काल की मुमुक्षु आत्माओ ! मुनिराज किसी को पंजा तो नहीं मार रहे हैं, किसी के रक्त को तो नहीं निकाल रहे हैं युगल मुनियों की दृष्टि तो देखो कि रक्त निकालने वाले को भी भावी भगवान कह रहे हैं जब सिंह की पर्याय में पंजा मार दिया तो वे युगल मुनिराज बोले- तुम विश्व में अहिंसा का नाद करोगे, यह तुमने क्या कर डाला ? आँखों से आँसू टपक गयें वाणी तुम्हारी ऐसी निकले कि शेर के अंदर भी वात्सल्य का झरना फूट पड़े, टूटे-हृदय मिल जाएँ श्रद्धा का दीप जल जाए वही वाणी, वाणी हैं गंगा के नीर में शीतलता की कमी आ सकती है, पर प्रेम के नीर में कभी शीतलता की कमी नहीं आतीं कुम्हार को मिट्टी में सुंदर घट नजर आता है, तभी तो घट निकाल पाता हैं मूर्तिकार / शिल्पकार को पाषाण नजर आता ही नहीं है, उसे तो मूर्ति दिखती हैं बस ध्यान रखना कि जिसे इस आत्मा में भगवान नजर न आए, उनकी आँखें पत्थर की हैं और जिनको इस आत्मा में भगवान नजर आ जाए, उनकी आँखें शुद्ध शिल्पकार की हैं।
भो ज्ञानी ! तुम्हारी दृष्टि स्थूल हैं पत्थर के भगवान के क्षेत्र में तो तुम कहते हो कि पाप मत करो, परंतु इस चैतन्य भगवान से मिलकर तुम पाप करते हों क्या स्त्री व पुरुष भगवान नहीं है? किसी स्त्री को पुरुष में रमने के भाव आ रहे हों तो वह सिद्धों से विषय भोग की भावना भा रही हैं किसी पुरुष में स्त्री से रमने के भाव आ रहे हैं, तो वह भी सिद्धों से रमण के भाव कर रहा है अब जियो, कहाँ जिओगे ? करो, क्या करोगे ? द्रव्य-दृष्टि कह कर भोगों में लिप्त होना तो अज्ञानी की श्रेणी हैं अरे! द्रव्य-दृष्टि को समझकर साधु-संत बन जाना, वह मुमुक्षु की दृष्टि हैं अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि द्रव्य-दृष्टि की आँख से देखो, जो तुम्हारे द्वार पर अंजुली लगाए खड़ा हो, वहाँ साधु नहीं देखना, वहाँ तुम चलते-फिरते सिद्ध को देख लेना मनीषियो! यही निर्विकल्प अवस्था है, यही आत्म-सुख है जब तुमने योगी का पड़गाहन किया, उनकी अंजुली पर ग्रास रखा, गद्गद् भाव आयां जब संयमी के हाथ में ग्रास देने में इतना आनंद है तो तपोपूत बनने में कितना आनंद होगा? जैसे आपने एक श्रमण की अंजुली पर ग्रास रखा, आपको आह्लाद उत्पन्न हो रहा है, ऐसे ही जो स्वरूप में लीन योगी होता है उसे परम आह्लाद उत्पन्न होता हैं उसका नाम आत्मानुभूति हैं भो Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
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