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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 434 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
मनीषियो ! भगवान् अमृतचन्द स्वामी ने अपूर्व सूत्र प्रदान किया कि प्राप्त वही होगा, जो तेरे पलड़े में होगां आकाँक्षा बढ़ सकती है, लेकिन द्रव्य नहीं बढ़ सकते हैं मेरा शरीर ऊँचा क्यों नहीं हुआ ऐसा विचार करके संकल्प-विकल्प अवश्य कर सकता है; लेकिन द्रव्य को नहीं बदल सकतां परन्तु यह अवश्य है कि नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प करके नवीन संक्लेशता को जन्म अवश्य दे सकते हों अतः जीवन में संक्लेशता का अभाव करने के लिए आचार्य भगवन् कह रहे हैं कि आप अपनी सीमा बांध लो, तो परिणति निर्मल हो जायेगीं पदार्थों की नहीं, परिणति की सीमा बांध कर चलनां यदि परिणति में सीमा नहीं है और पदार्थों में सीमा है तो, भो ज्ञानी! पदार्थ का उपभोग तो वहाँ नहीं कर पाएगा, लेकिन परिणति न जाने कितने का उपभोग कर लेगी, अतः वहाँ बंध निश्चित होगां
भो ज्ञानी ! ध्यान रखना जीवन में जैसे मुनिराज के अट्टाईस मूलगुणों में से यदि किसी भी मूलगुण का अभाव होता है तो मूलगुणों की पूर्णता नहीं कहलातीं उसी प्रकार श्रावकों के बारह व्रत होते हैं और बारह व्रतों में से अतिथि संविभाग नाम का व्रत हैं यदि आपने पात्र को दान नहीं दिया तो आपके बारह व्रतों का पालन नहीं हुआं अतिथि संविभाग करना तुम्हारा धर्म है, पात्र का मिलना या न मिलना यह तुम्हारा धर्म नहीं हैं अतिथि संविभाग करना श्रावक का कर्तव्य है, श्रावक का धर्म हैं
अहो ज्ञानी आत्माओ ! चार श्रेष्ठ जीव थे-सिंह, बंदर, नकुल और सुअर, जो सोच रहे थे कि काश ! मेरी पर्याय भी मनुष्य की होती तो मैं दान दे देता, लेकिन आज मेरे पास शक्ति नहीं है, सामर्थ्य नहीं हैं परन्तु परिणाम था वही 'सिंह' का जीव, जो अनुमोदना कर रहा था, भरतेश बनें शेष वृषभ, बाहुबलि आदि महापुरुष बनें उन्होंने एक पात्र की अनुमोदना की थी और दान देने वाला प्रथम तीर्थेश आदिनाथ बनां दान दिलाने वाली वह माँ (श्रीमती का जीव) महाराजा श्रेयांश बना अब दृष्टि समझनां हमने तो सोचा था कि आज मेरे यहाँ महाराज श्री आ जायेंगें अहो ज्ञानी! अतिथि हैं, जब आयेंगे तभी सत्कार कर लेनां चंदना तो रोज चौक पूर रही थी, जैसे पात्र भी प्राप्त हो गये थें विधि ली थी कि जिसके नयनों में नीर हो, हाथों में हथकड़ियाँ हों, पैरो में बेड़ियाँ हों, सिर मुड़ा हों वीर चल पड़े, चंदना खड़ी खड़ी देख रही थीं प्रभु सबने छोड़ा, आप भी छोड़कर चल पड़े तो यह सोच चंदना रो पड़ीं वर्द्धमान खड़े हो गयें वह दाल के छिलके भात बन गयें यह पात्र और दाता के पुण्य का प्रताप था दोनों की परिणति का परिणमन था जिनकी कोई तिथि नहीं है, वे अतिथि हैं और आपने जो शुद्ध भोजन अपने लिये बनाया है उस भोजन से जो अतिथि को दिया है, उसका नाम 'अतिथि संविभाग हैं मैंने अपने लिये शुद्ध भोजन बनाया था, पात्र आ गये, तो मैंने उनके लिए भोजन करा दिया, इसका नाम है अतिथि संविभागं
भो ज्ञानी! जिसने अतिथि संविभाग नहीं किया, उसका भोजन राक्षसों का भोजन हैं पात्र को दान दिये बिना आप भोजन कैसे कर रहे हैं? 'छहढाला' में पंडित दौलतराम जी ने लिखा है- 'मुनि को भोजन देय फेर Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
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