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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज
Page 424 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 ऊर्जा मिलेगी कि तुम दिनभर फूल जैसे महकोगें आप एक घंटा सामायिक करना, जैसी होती है वैसी, फिर आप वेदन करोगे कि मुझे कुछ मिला हैं जब मन सामायिक में होगा, उस समय भोजन में नहीं होगा, व्यसन में भी नहीं होगा, बस्ती में भी नहीं होगां भो ज्ञानी! निज की बस्ती में, निज की मस्ती में जो लीनता होगी, उसका नाम सामायिक होगां परंतु तुम पुद्गलों की मस्ती में झूल रहे हों भौतिकता में जीने वाली आत्माओ! पुराने भवन को नवीन बना लेते हो, पर तेरा पुराने चर्म का खण्डहर बनने पर पुनः यह युवा का भवन नहीं बनेगां भो ज्ञानी ! यह पुण्य के फूल खिले हैं जब मुरझा जायेंगे तब तुम्हें कोई दो कौड़ी को नहीं पूछेगां
एक घटना छतरपुर की हैं तालाब के किनारे राजमहल, उस महल के आगे "डेरा पहाड़ी" तीर्थ हैं वहाँ से जब जा रहा था तब कुछ नवयुवक कहने लगे-महाराजश्री! देखो जिस भवन में सम्राट राज्य करता था, वह आज कटोरा लिए एक भोजन की दुकान के नीचे खड़ा कह रहा है कि एक जलेबी डाल दों ओहो! जिसने पूरे देश को जलेबी खिलायी हो, छतरपुर नरेश छत्रसाल के वंशज उस व्यक्ति को आज कोई दो कौड़ी का नहीं पूछ रहा हैं तब लगा, ओहो! संसार में सबसे बड़ा धोखेबाज कोई है तो वह पुण्य हैं इसलिए पुण्य तो करना, लेकिन पुण्य के फल में मस्त मत हो जानां सातवें नरक में वही जीव जाता है जो सिद्धालय जाने की शक्ति रखता हैं पुण्य-प्रकृति का जो दुरुपयोग कर लेता है, वह नरक का अधिकारी बन जाता हैं इसलिए, दृष्टि तुम्हारे पास है, वस्तु तुम्हारे पास है, अब भी भूल को नहीं भूल पाये तो भगवान् बनना तो बहुत दूर है, इंसान भी नहीं बन पाओगें भूल सुधार लो, अमृतचंद्र स्वामी की बात को मान लों मौका है, अभी सम्हल जाओं यह पुण्य का योग चल रहा हैं ऐसे जो द्रव्य भले ही भक्ष्य हों, उनका भी आपको परिमाण कर लेना चाहिएं यदि एक दाल, एक शाक, रोटी से काम चल रहा है तो जीने के लिए बहुत सारे पदार्थ खाने की कोई आवश्यकता नहीं ध्यान से समझना-जीवन में जीने के लिए बहुत कुछ नहीं खाना पड़तां पर इन्द्रिय की लोलुपता के पीछे पता नहीं तुम कितना खाते हो? कम खाओगे, तो शुद्ध खाने को मिलेगां जितना ज्यादा खाओगे, उतना ही अशुद्ध मिलेगां
भो ज्ञानी! जीवन में ध्यान रखना, आपने धर्म तो बहुत किए हैं जाप, अनुष्ठान, स्वाध्याय कर लिया, पर वास्तव में तुम्हें भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक नहीं है, हेय-उपादेय का ज्ञान नहीं हैं जिसे आपा-पर का भेद-विज्ञान हो जाये, वह दूसरे की लाशों को खायेगा क्यों? आप जीव नहीं खाते, आप लाशें खाते हो; क्योंकि रात में दूध-पानी चल रहा हैं जिन-जिन जीवों ने पंच-परमेष्ठी की अवहेलना की, भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक नहीं रखा, धर्म क्षेत्र में आकर मायाचारी की, वे ऐसी तिर्यच पर्याय को प्राप्त हुए कि एक साँस में अठारह बार मरना पड़ां क्या जीवन है? देखो! वे ही जीव टपक रहे हैं बेचारे, जिन्होंने भोगों की रोशनी में आत्मा के योग को नष्ट किया था, तो वे आज लाईट में झुलस रहे हैं एक वाहन चला जाये, तो लाखों चले गये, करोड़ों चले गये उस पर्याय पर भी ध्यान रख लिया करो कि, हे भगवन्! कहीं मेरी ये पर्याय न हो जायें
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