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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 419 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
को मना ले तो तू भगवान् बन जायें यदि खोटा मन मचल गया तो वही अधोगति में ले जाता हैं एकान्त में बैठकर यदि आपके किसी के प्रति गलत विचार हो गये तो पता नहीं वो विचार कहाँ तक चले जाएँ और कहाँ तक नीचे ले जायें ? यदि वे ही विचार उत्कृष्ट हो जायें तो सिद्ध भगवान् दिखा देते हैं अतः खोटे मन को मित्र बना लेना कि तुम मेरा सहयोग करो, मुझे नीचे मत ले जाओं
भो ज्ञानी! पूर्णमासी के चन्द्र की तरह शुद्ध-उपयोग की परमदशा हैं जहाँ चारित्र में इतनी निर्मलता आती है, वही ज्ञानधन अखण्ड आत्मा उस चन्द्रमा से भी पवित्र हैं अहो चाँद! तू चमकता अवश्य है, पर तेरे मध्य में कलंक का टीका हैं किंतु चेतन-चंद्र में जीने वालों के चारित्र की चाँदनी में कोई दोष नहीं हो सकता यदि चारित्र की चाँदनी में दोष है तो उसमें चैतन्य पिंड आत्मा झलकता नहीं हैं अल्पदोष भी संयम की निर्दोषता को समाप्त कर देते हैं और जहाँ संयम ही नहीं होता है, वहाँ आत्मदर्शन कैसे हो सकता है? अर्थात् दोषों (असंयम) के पिंड में निर्दोष चैतन्य आत्मा नहीं झलकतां
भो चेतन! अन्तरात्मा, बहिरात्मा, परमात्मा ये तीनों चैतन्य-रस का ही परिणमन है, लेकिन तीनों के स्वाद में अन्तर हैं कभी एक दाढ़ के नीचे दबाना मिश्री, दूसरी दाढ़ के नीचे दबाना गुड़ तथा जीभ पर रख लेना खांड/शक्करं अब बताना कि स्वाद कैसा आ रहा है? देखो, एक साथ तो आप बता नहीं पाओगे, अलग-अलग जीभ फेरना पड़ेगी भो ज्ञानी! समझ लों जिसकी जीभ घूम रही है, उसको भी घूमना है, और जिनकी जीभ स्थिर हो गई, उनका संसार अब स्थिर होने वाला हैं इस जीभ ने ही तो सबके काम बिगाड़े हैं यदि यह जीभ वचन रूप से खिर जाये अर्थात् कान का विषय बन जाये, तो महाभारत करा देती है और यह जीभ यदि भोजन पर फिर जायें, तो सुन्दर पकवानों को मल बना देती हैं जिसने बहिरात्मा का अनादि से स्वाद लिया हो, उसे अन्तरात्म भाव झलकता ही नहीं हैं जैसे गुड़ को अन्य रसायन डालकर शुद्ध किया, तो पीत वर्ण की खाँड बन गयां उसी रस से समझ में आ रहा है कि स्वाद कुछ और भी हैं जैसे ही वह पीला वर्ण गया कि शुद्ध मिश्री बन गई और डली के रूप में आ गई यह है परमात्मदशां
भो ज्ञानी! जिसने दो को नहीं जाना, वह तीसरे को प्रकट नहीं कर पायेगा और हम यही भूल कर रहे हैं कि पहली अवस्था में वह तीसरी को देख रहे हैं यद्यपि पहली अवस्था में तीसरे की जानक तो परम आवश्यक है, परंतु पहली अवस्था को तीसरी अवस्था मान लेना ही परम भूल हैं अहो! ध्यान की ज्वाला पर आत्मा जब तक नहीं रखी जाती, तब तक हिंसात्मक-भाव नहीं मिटेगा, परंतु धर्मध्यान होने पर मिट जायेगां लेकिन अज्ञानता यह चल रही है कि परमात्म- भाव और अन्तरात्मभाव का उदय हआ नहीं, फिर भी बहिरात्मभाव में ही हम अपने आपको भगवान् मानना प्रारम्भ कर देते हैं भो ज्ञानी! जहाँ प्रक्रिया बिगड़ी, वहाँ सब किरकिरा हो गयां अतः, पहले ये देखो कि प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और श्रद्धा का रस टपक रहा है कि नहीं टपक रहा है? यदि कहीं अश्रद्धा का कीट बैठ गया, तो निगोद जाना पड़ेगां अतः,
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