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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 417 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
"महाव्रतों-में-वास उपवास है"
भोगोपभोगहेतोः स्थावरहिंसा भवेत्किलामीषाम् भोगोपभोगविरहाद् भवति न लेशोऽपि हिंसाया 158
अन्वयार्थः किल अमीषाम् = निश्चयकर इन देशव्रती श्रावकों के भोगोपभोगहेतोः= भोगोपभोग के हेतु सें स्थावरहिंसा = स्थावर जीवों की हिंसां भवेत् = होती है, ( किन्तु ) भोगोपभोगविरहात् = भोगोपभोग के त्याग में हिंसायाः लेशोऽपि = हिंसा का लेश भी न भवति = नहीं होता
वाग्गुप्तेर्नास्त्यनृतं न समस्तादानविरहितः स्त्येम् नाब्रह्म मैथुनमुचः सङ्गो नाङ्गेप्यमूर्छस्यं 155
अन्वयार्थ:वाग्गुप्तेः = (उपवासधारी पुरुष के) वचनगुप्ति के होने सें अनृतं नास्ति =झूठ वचन नहीं है समस्तादानविरहतः = सम्पूर्ण अदत्तादान के त्याग से स्तेयम् न = चोरी नहीं हैं मैथुनमुचः= मैथुन को छोड़ देने वाले के अब्रह्म न अङगे = अब्रह्म नहीं है और शरीर में अमूर्छस्य = निर्ममत्व के होने से सङग अपि न = परिग्रह भी नहीं हैं
इत्थमशेषितहिंसाः प्रयाति स महाव्रतित्वमुपचारात् उदयति चरित्रमोहे लभते तु न संयमस्थानम् 160
अन्वयार्थ:इत्थम् = इस प्रकारं अशेषितहिंसाः = सम्पूर्ण हिंसाओं से रहितं सः = वह प्रोषधोपवास करने वाला पुरुषं उपचारात् = उपचार से या व्यवहार नय से महाव्रतित्वं प्रयाति = महाव्रतीपने को प्राप्त होता हैं तु चरित्रमोहे
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