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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 415 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
प्रकार का पाप न करें यत्नाचारपूर्वक बैठें चलें, किसी जीव का वध न हों वास्तव में हमें लगना चाहिए कि आज उपवास किया है, आप बहुत उपवास करते हो, लेकिन विधि के अभाव में आप कर्म - निर्जरा नहीं कर पातें और आप तीसरे दिन प्रातः काल की सामायिक करेंगें दैनिक क्रिया के बाद भगवान् की पूजा करेंगे, फिर सामायिक के बाद आपका भोजन होगां यह विधि है पारणा कीं
भो चेतन! पात्र को दान दिये बिना यदि उपवासधारी भोजन करता है, तो उसका उपवास अधूरा हैं भले आपको मुनिराज नहीं मिले, पिच्छीधारी नहीं मिले, तो कोई श्रावक को लिवा ले जाओं आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी 'अष्टपाहुड' और 'रयणसार' ग्रंथ में लिख रहे हैं कि पंचमकाल में जिस व्यक्ति को सच्चा श्रावक और साधु नहीं दिखें, बस अब मिथ्यादृष्टि की खोज करने नहीं जानां उसका हाथ पकड़ लेना कि मिथ्यादृष्टि तू ही हैं 'तत्त्वसार' में भी यह गाथा आई हैं इन तीन ग्रंथों को देख लेना जो पंचमकाल के वर्तमान में सच्चे साधुओं और सच्चे श्रावकों को नहीं मानता है उन्हें स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि वह मिथ्यादृष्टि हैं इसलिए तीसरे दिन यह नहीं होगा कि महाराजश्री सिर दर्द कर रहा हैं आश्चर्य है कि उपवास कर लिया, परंतु चाय नहीं छोड़ पा रहा हैं कम से कम तुम उकाली ले लेतें अतः तीसरे दिवस भी एक समय ही भोजन करेगा वह दिन भी धर्म- ध्यान में निकालेगा ऐसे ही साधना के संस्कार बनेंगे सम्पूर्ण सावध को छोड़कर अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि श्रावक के पूर्ण अहिंसाव्रत का पालन कर लिया करो अष्टमी और चतुर्दशी को जब हम कहीं किसी से जुड़ जाते हैं एक परिवार में दूसरे पुत्र ने जन्म लिया तो बड़े भइया की विडम्बना प्रारंभ हो गईं उसी दिन से माँ का दुलार भी बँट गया और पिता का दुलार भी बँट गयां लेकिन ध्यान रखना, उन्हें तो दूसरा बेटा मिल गया, पर बेटे को दूसरे माता-पिता नहीं मिलें माँ दूसरी दृष्टि से देखना प्रारंभ कर देती है, पर बेटा दूसरी दृष्टि से नहीं देखता हैं वह उतना ही ज्यादा गोदी में चिपकता है, पर माँ उसको पटकना प्रारंभ कर देती हैं यहाँ से द्वेष प्रारंभ हो जाता है व्यवहारिक दृष्टि से देखते हैं, तो जब प्रथम पुत्र पैदा होता है तो आप उसको कुछ ज्यादा ही दुलार देते हो और जिसको एक बार ज्यादा दुलार मिल गया हो, कालांतर में उसे तुम बाँटोगे तो बेटे को फीका लगता हैं अहो मनीषियो ! पर्याय के परिणमन को लेकर परिणामों का परिणमन विकृत मत कर लेना, क्योंकि संबंध शाश्वत नहीं हैं किसी के जीते जी विच्छिन्न हो जाते हैं, तो किसी के मरने के बादं यदि हमारे जीते जी विच्छिन्न हो गए तो हमारा तीव्र अशुभ कर्म का उदय माननां विच्छिन्न तो होते ही हैं, इसको तो कोई टाल नहीं सकतां लेकिन आज से जोड़ने का ही प्रयास करूँगा और नहीं जुड़े तो फिर इतना ध्यान रखना कि निज से जुड़ना मत छोड़ देना कर्तव्य कर लेना, लेकिन उसमें भी संक्लेशता मत लाना कि, हाय! अब मैं क्या करूँगा? अरे भाई! तुम फिर चिंतवन करना एक तिर्यंच कां माँ कहीं रहती है और बेटा कहीं बिक जाता है, लेकिन फिर भी जीवन चलता हैं यह स्वतंत्र रहने का सूत्र हैं भो ज्ञानी! 'दूर रहना' मोक्षमार्ग में बाधक नहीं है, पर 'दुर्भावना' मोक्षमार्ग में बाधक हैं पास रहकर दुर्भावना रहेगी,
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