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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 372 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002
अन्वयार्थः
नगरों की रक्षा करती हैं,
किल निश्चयकरं परिधयः इव जिस तरह परिधियाँ (कोट, किला) नगराणि उसी तरहं शीलानि = तीन गुण व्रत और चार शिक्षा व्रत ये सप्त शील व्रतानि = पांचों अणुव्रतों कां पालयन्ति = पालन करते अर्थात् रक्षा करते हैं तस्मात् = अतएवं व्रतपालनाय = व्रतों का पालन करने के लिए शीलानि
(सात) शीलव्रतों का अपि = भीं पालनीयानि = पालन करना चाहिएं
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" अणुव्रत के रक्षक सप्त-शील "
परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानिं व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानिं 136
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प्रविधाय सुप्रसिद्धैर्मर्यादां सर्वतोऽप्यभिज्ञानैः
प्राच्यादिभ्यो दिग्भ्यः कर्त्तव्या विरतिरविचलितां 137
अन्वयार्थः
सुप्रसिद्धैः = अच्छे प्रसिद्धं अभिज्ञानैः मर्यादा को प्रविधाय = करने की प्रतिज्ञा कर्तव्या = करनी चाहियें
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( ग्राम, नदी, पर्वतादि ) नाना चिन्हों से सर्वतः = सब ओर मर्यादां =
= दिशाओं से अविचलिता विरतिः = गमन न
करके प्राच्यादिभ्यः = पूर्वादिकं दिग्भ्यः
मनीषियो! अंतिम तीर्थेश भगवान महावीर स्वामी की पावन देशना से आचार्य भगवान् अमृतचन्द्र स्वामी ने अलौकिक सूत्र हमें दिये हैं खेत की रक्षा बाड़ी से होती है, आत्मा की रक्षा शील स्वभाव से होती हैं अतः संयम तो चारित्र की बाड़ी के तुल्य हैं उपसर्ग / परीषह साधक के जीवन में बहुत बड़ी बाड़ी हैं परंतु जब कठिनाईयाँ आती हैं, तो उन कठिनाईयों के काल में कषायों को पहले पीना सीख लेना, अन्यथा क्षमा का आना बहुत दुर्लभ हैं
अहो ज्ञानी! कषायों को छिपाने का प्रयास तो अनंत बार किया हैं आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि तेरे अंतरंग में जब तक निर्मल भावना नहीं है, कषाय का अभाव नहीं है, तब तक क्षमा नहीं हैं अतः,
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